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________________ पंचास्तिकाय ___ संसारी, मुक्त, भव्य तथा अभव्योंका वर्णन एदे जीवणिकाया, देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा। . देहविहूणा सिद्धा, भव्वा संसारिणो अभव्वा य।।१२०।। ऊपर कहे हुए ये समस्त जीव शरीरके परिवर्तनको प्राप्त हैं -- एकके बाद एक शरीरको बदलते रहते हैं। सिद्ध जीव शरीरसे रहित हैं और संसारी जीव भव्य-अभव्यके भेदसे दो प्रकारके हैं।।१२० ।। इंद्रियादिक जीव नहीं हैं ण हि इंदियाणि जीवा, काया पुण छप्पयार पण्णत्ता। जं हवदि तेसु णाणं, जीवो त्ति य तं परूवंति।।१२१।। न स्पर्शनादि इंद्रियाँ जीव हैं, न उल्लिखित पृथिवीकायादि छह प्रकारके काय जीव हैं, किंतु उनमें जो ज्ञान है-- चैतन्य है, वही जीव है ऐसा महापुरुष कहते हैं।।१२१ ।। जीवकी विशेषता जाणदि पस्सदि सव्वं, इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा, भंजदि जीवो फलं तेसिं।।१२२।। जीव सबको जानता है, सबको देखता है, सुखको चाहता है, दुःखसे डरता है, शुभ कार्य करता है, अशुभ कार्य करता है और उनके फल भी भोगता है।।१२२।। एवमभिगम्म जीवं, अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहुगेहिं। अभिगच्छदु अज्जीवं, णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं ।।१२३।। इस प्रकार और भी अनेक पर्यायोंके द्वारा जीवको जानकर ज्ञानसे भिन्न स्पर्श आदि चिह्नोंसे अजीवको जानो।।१२३ ।। - द्रव्योंमें चेतन और अचेतनका वर्णन आगासकालपुग्गल,धम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा। तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा।।१२४।। आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें जीवके गुण नहीं हैं, उनमें अचेतनता कही गयी है। चेतनता केवल जीवका ही गुण है।।१२४ ।।। म अजीवका लक्षण सुहदुक्खजाणणा वा, हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं। जस्स ण विज्जदि णिच्चं, तं समणा विंति अज्जीवं ।।१२५ ।। जिसमें सुख-दुःखका ज्ञान, हितकी प्रवृत्ति और अहितका भय नहीं है, गणधरादि मुनि उसे अजीव
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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