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पंचास्तिकाय
लगते हैं। यद्यपि ये अपने अवांतर भेदोंकी अपेक्षा बहुत प्रकारके हैं तथापि स्पर्शनेंद्रियावरणके क्षयोपशमसे युक्त एकेंद्रिय जीवोंको मोहबहुल स्पर्श प्राप्त कराते हैं । । ११० ।। स्थावर और त्रसका विभाग
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तित्थावरतणुजोगा, अणिलाणलकाइया य तेसु तसा । मणपरिणामविरहिदा, जीवा एइंदिया णेया । । १११ । ।
उक्त पाँच प्रकारके जीवोंमें स्थावर शरीर प्राप्त होनेसे पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक ये तीन स्थावर कहलाते हैं और चलनात्मक शरीर प्राप्त होनेसे अग्निकायिक तथा वायुकायिक त्रस कहलाते हैं। ये सभी जीव मनसे रहित हैं और एकेंद्रिय हैं ।। १११ । । पृथिवीकायिक आदि स्थावर एकेंद्रिय ही हैं
एदे जीवणिकाया, पंचविहा पुढविकाइयादीया ।
मणपरिणामविरहिदा, जीवा एगिंदिया भणिया । । ११२ । ।
ये पृथिवीकायिक आदि पाँच प्रकारके जीव मनरहित हैं और एकेंद्रियजाति नामकर्मका उदय होनेसे सभी एकेंद्रिय कहे गये हैं । । ११२ । ।
एकेंद्रियोंमें जीवके अस्तित्वका समर्थन
अंडेसु पवडुंता, गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया ।
जारिसया तारिसया, जीवा एगेंदिया णेया । । ११३ ।।
जिस प्रकार अंडेमें बढ़नेवाले तिर्यंचों और गर्भ में स्थित तथा मूर्च्छित मनुष्योंमें बुद्धिपूर्वक बाह्य व्यापार न दिखनेपर भी जीवत्वका निश्चय किया जाता है उसी प्रकार एकेंद्रिय जीवोंके भी बाह्य व्यापार न दिखनेपर भी जीवत्वका निश्चय किया जाता है । । ११३ ।। द्वींद्रिय जीवोंका वर्णन
संबुक्कमादुवाहा, संखा सिप्पी अपादगा य किमी ।
जाणंति रसं फासं, जे ते बेइंदिया जीवा । । ११४ । ।
जो शंबूक, मातृवाह, शंख तथा पादरहित कृमि-लट आदि जीव केवल स्पर्श और रसको जान हैं वे दो इंद्रिय जीव हैं । । ११४ ।।
१. यहाँ अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको जो त्रस कहा है वह केवल उनके शरीरकी चलनात्मक क्रिया देखकर ही कहा है। यथार्थमें इन सबकके त्रस नामकर्मका उदय न होकर स्थावर नामकर्मका उदय रहता है, अतः वे सभी स्थावर ही हैं।