SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १/ कुन्दकुन्द-भारती आदि भावकर्म।।६।। आत्मा निजभावका कर्ता है परभावका नहीं कुव्वं सगं सहावं, अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स। _ण हि पोग्गलकम्माणं, इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ।।६१।। 'अपने निजभावको करता हुआ आत्मा निजभावका ही कर्ता है, पुद्गलरूप द्रव्यकर्मोंका कर्ता नहीं है' ऐसा जिनेंद्रदेवका वचन जानना चाहिए।।६१।। कम्मं पि सगं कुव्वदि, सेण सहावेण सम्ममप्पाणं। जीवो वि य तारिसओ, कम्मसहावेण भावेण।।६२।। जिस प्रकार कर्म स्वकीय स्वभाव द्वारा यथार्थमें अपने आपको करता है उसी प्रकार जीवद्रव्य भी स्वकीय अशुद्ध स्वभाव -- रागादि परिणाम द्वारा अपने आपको करता है। निश्चय नयसे कर्मका कर्ता कर्म है और जीवका कर्ता जीव है। जीव पुद्गल द्रव्यमें होनेवाले कर्मरूप परिणमनका कर्ता है और कर्म, जीवद्रव्यमें होनेवाले नर नारकादि परिणमनका कर्ता है' यह सब औपचारिक कथन है।।६२ ।। प्रश्न कम्मं कम्मं कुव्वदि, जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं। किध तस्स फलं भुंजदि, अप्पा कम्मं च देदि फलं।।६३।। यदि कर्म कर्मका कर्ता है और आत्मा आत्माका कर्ता है तो आत्मा कर्मके फलको किस प्रकार भोगता है? और कर्म भी आत्माको किस प्रकार फल देता है? ।।६३ ।। उत्तर मोगाढगाढणिचिदो, पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। सुहुमेहिं बादरेहिं, णंताणतेहिं विविहेहिं।।६४।। अत्ता कुणदि सहावं, तत्थ गदा पोग्गला सहावेहिं। गच्छंति कम्मभावं, अण्णोण्णागाहमवगाढा।।६५।। जह पुग्गलदव्वाणं, बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती। अकदा परेहिं दिट्ठा, तह कम्माणं वियाणाहि।।६६।। जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गला: कर्मभावेन।।१२।। परिणममाणस्य चितःश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावै। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।। -- पुरुषार्थसिद्ध्युपाये अमृचन्द्रसूरेः
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy