SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ कुन्दकुन्द-भारती जीव, सहज चैतन्यलक्षण पारिणामिकभावकी अपेक्षा अनादि-निधन है। औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावकी अपेक्षा सादि सांत हैं। क्षायिकभावकी अपेक्षा सादि अनंत हैं। सत्ता स्वरूपकी अपेक्षा अनंत हैं, विनाशरहित हैं अथवा द्रव्यसंख्याकी अपेक्षा अनंत हैं और व्यवहारकी अपेक्षा औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक इन पाँचों भावोंकी प्रधानता लिये हुए प्रवर्तमान हैं ।। ५३ ।। विवक्षावशसे सत्के विनाश और असत्के उत्पादनका कथन एवं सदो विणासो, असदो जीवस्स होइ उप्पादो । इदि जिणवरेहिं भणिदं, अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं । । ५४ ।। इसप्रकार विवक्षावश विद्यमान जीवका विनाश होता है और अविद्यमान जीवका उत्पाद भी । जिनेंद्रदेवका यह कथन परस्परमें विरुद्ध होनेपर भी नयविवक्षासे अविरुद्ध है । 'मनुष्य मरकर देव हुआ' यहाँ मनुष्यपर्यायसे उपलक्षित जीवद्रव्यका नाश हुआ और देव पर्याय अनुपलक्षित जीवद्रव्यका उत्पाद हुआ। द्रव्यार्थिक नयसे यह सिद्धांत ठीक है कि 'नैवासतो जन्म सतो न नाशः' अर्थात् असत्का जन्म और सत्का नाश नहीं होता, परंतु पर्यायार्थिक नयसे विद्यमान पर्यायका नाश और अविद्यमान पर्यायका उत्पाद होता ही है, क्योंकि क्रमवर्ती होनेसे एक कालमें दो पर्याय विद्यमान नहीं रह सकते। इसलिए पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जिनेंद्रदेवका गाथोक्त कथन अविरुद्ध है । । ५४ ।। सत्के विनाश और असत्के उत्पाद का कारण रइयतिरियमणुआ, देवा इदि णामसंजुदा पयडी । कुव्वंति सदो णासं, असदो भावस्स उप्पादं । । ५५ ।। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन नामोंसे युक्त कर्मप्रकृतियाँ विद्यमान पर्यायका नाश करती हैं और अविद्यमान पर्यायका उत्पाद करती हैं । । ५५ ।। जीवके औपशमिक आदि भावोंका वर्णन उदयेण उवसमेण य, खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा, बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा । । ५६।। जीव जो भाव कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे तथा आत्मीय निज परिणामोंसे युक्त हैं वे उसके क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक नामसे प्रसिद्ध पाँच सामान्य गुण हैं। ये पाँचों ही गुण -- भाव उपाधिभेदसे अनेक अर्थों में विस्तृत हैं -- अनेक भेदयुक्त हैं अथवा बहुसुदअत्थेसु वित्थिण्णा' पाठमें बहुज्ञानियोंके शास्त्रोंमें विस्तारके साथ वर्णित हैं ।। ५६ ।। १. बहुसुदअत्थेसु वित्थिण्णा -- बहुश्रुतशास्त्रेषु तत्त्वार्थादिषु विस्तीर्णाः।। -- ज. वृ.
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy