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पंचास्तिकाय
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और अंतरहित तथा अनंत पदार्थोंको विषय करनेवाला केवलदर्शन ये चार दर्शनोपयोगके भेद हैं।।४२।।
जीव और ज्ञानमें अभिन्नता ण वियप्पदिणाणादो, णाणी णाणाणि होति णेगाणि।
तम्हा द विस्सरूवं, भणियं दवियत्ति णाणीहि ।।४।। चूँकि ज्ञानी ज्ञानगुणसे पृथक् नहीं है और ज्ञान मति आदिके भेदसे अनेकरूप है, इसलिए ज्ञानीमहर्षियोंने जीवद्रव्यको अनेकरूप कहा है।।४३।।
गुण और गुणीमें अभेद जदि हवदि दव्वमण्णं, गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे।
दव्वाणंतियमधवा, दव्वाभावं पकुव्वंति।।४४।। यदि द्रव्य, गुणसे पृथक् हो और गुण भी द्रव्यसे पृथक् हो तो या तो द्रव्यमें अनंतता आ जावेगी या द्रव्यसे पृथक् रहनेवाले गुण द्रव्यका अभाव ही कर देंगे।।४४।।
द्रव्य और गुणोंमें अभेद तथा भेदका निरूपण अविभत्तमणण्णत्तं, दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं।
णिच्छंति णिच्चयण्हू, तब्विवरीदं हि वा तेसिं।।४५।। द्रव्य और गुणोंमें जो अनन्यत्व - एकरूपता है वह प्रदेशभेदसे रहित है। निश्चयके जाननेवाले महर्षि द्रव्य और गुणोंके बीच प्रदेश भेदरूप अन्यत्वको नहीं मानते हैं - द्रव्य और गुणोंमें प्रदेशभेद न होनेसे अभेद है और संज्ञा संख्या प्रयोजन आदिकी विभिन्नता होनेसे भेद है। निश्चयज्ञ पुरुष इनके भेद और अभेदको उक्त प्रकारसे विपरीत नहीं मानते हैं।।४५।।
ववदेसा संठाणा, संखा विसया य होंति ते बहुगा।
ते तेसिमणण्णत्ते, अण्णत्ते चावि विज्जंते।।४६।। उन द्रव्य और गुणोंके व्यपदेश - कथनके भेद, आकार, संख्या एवं विषय बहुत प्रकारके होते हैं और वे द्रव्य तथा गुणोंके अभेद और भेद दोनों प्रकारकी दशाओंमें विद्यमान रहते हैं।।४६।।
पृथक्त्व और एकत्वका वर्णन णाणं धणं च कुव्वदि, धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं।
भण्णंति तह पुधत्तं, एयत्तं चावि तच्चण्हू।।४७।। जैसे धन पुरुषको धनवान करता है और ज्ञान ज्ञानी। यहाँ धन जुदा है और पुरुष जुदा है। परंतु धनके संबंधसे पुरुष धनवान नाम पाता है और ज्ञान तथा ज्ञानी दोनोंमें यद्यपि प्रदेशभेद नहीं है तथापि