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________________ कुन्दकुन्द-भारती माना है वह मिथ्या है।।३७।। त्रिविध चेतनाकी अपेक्षा जीवके तीन भेद कम्माणं फलमेक्को, एक्को कज्जंतु णाणमध एक्को। चेदयदि जीवरासी, चेदगभावेण तिविहेण।।३८ ।। कुछ जीव प्रच्छन्नसामर्थ्य होनेके कारण केवल कर्मफलका अनुभव करते हैं, कुछ सामर्थ्य प्रकट होनेके कारण इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्मका अनुभव करते हैं और कुछ विशुद्ध ज्ञानका ही अनुभव करते हैं। इस प्रकार जीवराशि तीन प्रकारके चेतक भावसे पदार्थका अनुभव करती है। चेतना के तीन भेद हैं - - १. कर्मफल चेतना, २. कर्मचेतना और ३. ज्ञानचेतना।।३८ ।। कर्म, कर्मफल और ज्ञानचेतना के स्वामी सब्वे खलु कम्मफलं, थावरकाया तसा हि कज्जजुदं। पाणित्तमदिक्कंता, णाणं विदंति ते जीवा।।३९।। सब स्थावर जीव कर्मफलका अनुभव करते हैं, त्रसजीव इष्टानिष्ट पदार्थों में आदान हानरूप कर्म करते हुए कर्मका उपभोग करते हैं और प्राणिपनेके व्यवहारसे परे रहनेवाले अतींद्रिय ज्ञानी अरहंतसिद्ध ज्ञानमात्रका वेदन करते हैं।।३९।। उपयोगके दो रूप उवओगो खलु दुविधो, णाणेण य दंसणेण संजुत्तो। जीवस्स सव्वकालं, अणण्णभूदं वियाणीहि।।४०।। ज्ञान और दर्शनसे युक्त होनेके कारण उपयोग दो प्रकारका होता है, यह उपयोग सदा काल जीवसे अनन्यभूत - अभिन्न रहता है। आत्माके चैतन्यगुणके परिणमनको उपयोग कहते हैं, उसके दो भेद हैं -- १. ज्ञानोपयोग और २. दर्शनोपयोग।।४०।। - ज्ञानोपयोगके आठ भेद आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि। कुमदिसुदविभंगाणि य, तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते।।४१।। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच सम्यग्ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ये तीन मिथ्याज्ञान सब मिलाकर ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं।।४१ ।। दर्शनोपयोगके चार भेद दंसणमवि चक्खुजुदं, अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं। अणिधणमणंतविसयं, केवलियं चावि पण्णत्तं ।।४२।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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