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पंचास्तिकाय
चेतनागुणसंयुक्त है। निश्चयनयकी अपेक्षा केवलज्ञान, केवलदर्शनरूप उपयोगसे और अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक उपयोगसे विशिष्ट है। निश्चयकी अपेक्षा मोक्ष और मोक्षके कारणरूप शुद्ध परिणामोंके परिणमनमें समर्थ होनेसे तथा अशुद्ध नयकी अपेक्षा संसार और उसके कारणस्वरूप अशुद्ध परिणामोंके परिणमनमें समर्थ होनेसे प्रभु है। शुद्ध निश्चय नयसे शुद्ध भावोंका, अशुद्ध निश्चय नयसे रागादि भावोंका और व्यवहार नयसे द्रव्य कर्मोंका कर्ता होनेके कारण कर्ता है। शुद्ध निश्चय नयसे शुद्धात्मदशामें उत्पन्न होनेवाले वीतराग परमानंदरूप सुखका, अशुद्ध निश्चय नयसे कर्मजनित सुखदुःखादिका और अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नयसे सुख-दुःखके साधक इष्ट-अनिष्ट विषयोंका भोगनेवाला होनेके कारण भोक्ता है। निश्चय नयसे लोकाकाशके बराबर असंख्यातप्रदेशी होनेपर भी व्यवहार नयसे नामकर्मोदयजनित शरीरके बराबर रहनेसे स्वदेहमात्र है, मूर्तिसे रहित है और कर्मसंयुक्त है। यह संसारी जीवका स्वरूप है।।२७।।
मुक्त जीवका स्वरूप कम्ममलविप्पमुक्को, उड़े लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाणदरिसी, लहदि सुहमणिंदियमणंतं ।।२८ ।। यह जीव कर्ममलसे विप्रमुक्त होता है तब सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर ऊर्ध्वगति स्वभावके कारण लोकके अंतिम भाग -- सिद्धक्षेत्रमें जा पहुँचता है और वहाँ अनंत अतींद्रिय सुख प्राप्त करने लगता है।।२८।।
मुक्त जीवकी विशेषता जादो य सयं चेदा, सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य।
पप्पोदि सुहमणंतं, अव्वाबाधं सगममुत्तं ।।२९।। जो आत्मा पहले संसार अवस्थामें इंद्रियजनित बाधा सहित पराधीन और मूर्तिक सुखका अनुभव करता था अब वही चिदात्मा मुक्त अवस्थामें सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर अनंत, अव्याबाध, स्वाधीन और अमूर्तिक सुखका अनुभव करता है।।२९।।
जीव शब्दकी निरुक्ति पाणेहिं चदुहिं जीवदि, जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण, बलमिंदियमाउ उस्सासो।।३०।। जो चार प्राणों के द्वारा वर्तमानमें जीवित है, आगे जीवित होगा और पहले जीवित था वह जीव है। जीवके चार प्राण हैं -- बल, इंद्रिय, आयु और उच्छ्वास ।।३०।।