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________________ १५. कर्म-पुरुषार्थ समन्वय १. प्रधान प्रश्न, २. यथार्थ पुरुषार्थ; ३. तप का स्थान; ४. तपका स्वरूप; । ५. कर्म-पुरुषार्थ समन्वय । १. प्रधान प्रश्न-जीव-कर्म की स्वाभाविक व्यवस्था के अन्तर्गत १५ बातें बताई गई-द्रव्य तथा भाव कर्म का स्वरूप, दोनों का पारस्परिक निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, जीव के मन वचन काय की प्रवृत्ति अथवा योग के निमित्त से होने वाला प्रकृति तथा प्रदेश का आस्रव, उसके रागात्मक उपयोग से होने वाला स्थिति तथा अनुभाग बन्ध, कर्म का उदय तथा उससे जीव के गुणों में विकृति, कर्म की सत्ता, एक समय-प्रबद्ध कर्म-द्रव्य का गणनातीत काल पर्यन्त बराबर उदय में आ आकर खिरते रहना, कर्मों का संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण, उपशम, क्षयोपशम, क्षय, संवर तथा निर्जरा । इन्हीं १५ बातों में सर्व-प्रधान बात है जीव तथा कर्म के पारस्परिक बन्ध का अनादि सन्तान-क्रम । जीव के योग तथा विकृत उपयोग के निमित्त से कर्म का स्वत: बंधना, निज परिपाक काल को पाकर उस कर्म का स्वत: उदय में आना, उदय के फलस्वरूप जीव में विकार का अवश्य होना और उसके निमित्त से पुनः कर्म बन्ध का अवश्य होना। यह अटूट प्रवाह किसी नियन्ता की अपेक्षा नहीं रखता, बल्कि जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्यों की स्वाभाविक बन्ध शक्तियों के कारण स्वत: चलता रहता है । यह जगत की तात्त्विक व्यवस्था है। यहाँ एक प्रधान प्रश्न उत्पन्न होता है कि जीव तथा कर्मबन्ध के इस अटूट प्रवाह से जीव का छुटकारा कैसे सम्भव हो, क्योंकि यदि यह सब कुछ स्वाभाविक है तो, भाव के आश्रय पर कर्म और कर्म के आश्रय पर भाव का अन्योन्याश्रित चक्र बराबर चलता ही रहेगा। इसे टूटने को अवकाश कब तथा कैसे होगा? . २. यथार्थ पुरुषार्थ प्रश्न ठीक है, परन्तु इसको अवकाश उसी समय तक है अब तक कि आप कर्मों के साथ-साथ जीवके शुद्ध परिणामों के प्रभाव को नहीं जान लेते। किसी तालाब में एक द्वार से पानी आता रहे और दूसरे द्वार से निकलता रहे तो तालाब सूख नहीं सकता, परन्तु यदि आगमन का द्वारा रोक दिया जाये और निकलने का द्वार खुला रहे तो वह तालाब शीघ्र ही खाली हो जाता है। इसी प्रकार जब तक प्रति समय नवीन कर्मों का आस्रव तथा बन्ध होता रहता है, और साथ-साथ उदय में आकर झड़ने रूप सविपाक निर्जरा भी होती रहती है, तब तक जीव कर्मों की सत्ता से मुक्त नहीं हो सकता । परन्तु यदि समता स्वरूप शुद्ध परिणामों के द्वारा नवीन कर्मों का
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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