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________________ कर्म सिद्धान्त १४. उपशम आदि __ कर्म के उदय से होने वाले जीव के जो कुछ भी अन्धकारमयी भाव हैं अर्थात् ज्ञानाभाव रूप परिणाम होते हैं या कषाय रूप परिणाम होते हैं, वे सब उसके 'औदयिक भाव' कहलाते हैं। इसी प्रकार कर्म के उपशम से होने वाले परिणाम 'औपशमिक भाव' , क्षयोपशम से होने वाले 'क्षयोपशमिक भाव' और क्षय से होने वाले 'क्षायिक भाव' कहलाते हैं । उदय, उपशम क्षयोपशम तथा क्षय से निरपेक्ष जीव के उस त्रिकाली चेतन स्वभाव को 'पारिणामिक भाव' कहते हैं, जो इन सबमें अनुस्यूत है, परन्तु उनमें अनुस्यूत रहते हुए भी जो उदय आदि से सर्वथा अस्पष्ट है। इस प्रकार • संक्षेप से जीव के पाँच भाव होते हैं, जिनका विस्तार आगम से जानने योग्य है। ६. संवर निर्जरा–जीव के परिणामों के निमित्त से जिस प्रकार बन्ध तथा संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण, उपशम आदि होते हैं, उसी प्रकार संवर निर्जरा भी होती है। योगों के निमित्त से होने वाले नवीन कर्मास्रव का रुक जाना, अथवा आगत कर्म-स्कन्ध में किसी प्रकृति-विशेष का न पड़ना अथवा विकृत उपयोग के निमित्त से . नवीन स्थिति तथा अनुभाग का न पड़ना 'संवर' कहलाता है। इसी प्रकार तपश्चरण के निमित्त से अथवा समता तथा शमता रूप शुद्ध परिणामों के निमित्त से सत्ता में पड़े हुए कर्मों का झड़ जाना 'निर्जरा' कहलाती है। यह निर्जरा दो प्रकार की होती है-सविपाक तथा अविपाक। इनमें से सविपाक निर्जरा तो सभी को सदा होती रहती है, परन्तु अविपाक निर्जरा कुछ विशेष साधकों तथा तपस्वियों को ही हुआ करती है; क्योंकि अपने परिपाक काल पर स्वत: कर्मों का उदय में आकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा कहलाती है, और तपश्चरण के द्वारा, पाल में दबाकर पकाये गए आम्रवत्, अपने परिपाक काल से पहले ही कर्मों को उदय में लाकर झाड़ देना अविपाक निर्जरा है । मोक्ष मार्ग में 'अविपाक निर्जरा' ही कार्यकारी है, क्योंकि इसके साथ नवीन बन्ध नहीं होता, जब कि सविपाक निर्जरा के साथ होता रहता है। . . जीव के परिणाम तीन प्रकार के बताये गए थे-शुभ, अशुभ तथा शुद्ध । शुभ तथा अशुभ इन दोनों से क्रमश: पुण्य तथा पापरूप कर्मों का बन्ध होता है, परन्तु शुद्ध परिणाम सर्वथा बन्ध के कारण नहीं हैं, क्योंकि इसमें बन्ध के कारणभूत रागादि विकार नहीं पाये जाते । शुद्ध भाव ज्ञाता दृष्टा रूप समता तथा शमता का नाम है, जो पूर्व कर्मों की निर्जरा का ही कारण होता है, बन्ध का नहीं। यदि उद्यम पूर्वक जीव रागादि भावों को रोककर समता में स्थित रहने का अभ्यास करे तो तत्फलस्वरूप संवर तथा निर्जरा के कारण धीरे-धीरे उसके कर्मों का भार हलका होता चला जाये और कुछ काल में ही कर्मों का उन्मूलन हो जाने पर वह परम शुद्ध दशा को अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाये।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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