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प्राय: भयंकर विघ्न आते हैं। इस रहस्य को जानना सरल नहीं है। बड़े बड़े तपस्वी उनसे अनिभज्ञ रहने के कारण धोखा खा जाते हैं। उनमें से एक प्रधान विन यह है कि जब साधक अशान्ति-जनक स्थूल संस्कारों पर विजय पा लेता है। और उसके प्रभाव से जब उसमें एक धीमी सी ज्योतिमयी रेखा की झलक आती है तो वह अपने को पूर्ण काम समझ बैठता है । इसका कारण यह है कि कि वह झलक इतनी स्वच्छ तथा शीतल होती है कि साधक के सर्व ताप क्षण भर के लिय शान्त हो जाते हैं। इस भ्रान्ति के कारण साधक ज्यों ही कुछ प्रमाद करता है त्यों ही उसके प्रसुप्त संस्कार जागृत होकर उसे ऐसा दबोचते हैं कि बेचारे को सर उभारने के लिए भी अवकाश नहीं रह जाता और पथ-भ्रष्ट होकर चिर काल तक जगत के कण-कण की खाक छानता फिरता है। उसकी यह दशा अत्यन्त दयनीय होती है।
- आचार्यों की करुण कृपा का कहाँ तक वर्णन किया जाय । बुद्धि से अगोचर इन सूक्ष्म संस्कारों के प्रति साधक को जागरुक करने के लिये उन्होंने गणस्थान परिपाटी के द्वारा उनकी अदृष्ट सत्ता का बोध कराया है। समाधिगत निर्विकल्प साधु के हृदय की किसी गहराई में बैठे उनकी सत्ता का दिग्दर्शन करा के उनके उदय की सम्भावना के प्रति चेतावनी दी है। बुद्धि-गम्य की अपेक्षा बुद्धि से अतीत इन वासनागत संस्कारों को तोड़ना अत्यन्त क्लेशकर होता है । लब्धिगत इनका उन्मूलन किये बिना आनन्दघन में प्रवेश होना सम्भव नहीं।
- अत्यन्त परोक्ष होने के कारण इस विषय को शब्दों द्वारा समझाना कोई सरल काम नही है। इसे समझने के लिए अत्यन्त केन्द्रित उपयोग की तथा कटिबद्ध लम्बे अभ्यास की आवश्यकता है । संक्षेप में इसका परिचय देना एक प्रकार से इस विषय का उपहास है। तथापि स्वाध्याय प्रेमियों के विशेष आग्रह से मैं यह दुःसाहस काने बैठा हूँ, जिसके लिए सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्धान् मुझे क्षमा करेंगे, और अपनी ओछी बुद्धि के कारण कहीं स्खलित हो जाऊँ तो समुचित सुधार करके मुझे अनगृहीत करेंगे। अलौकिक बुद्धि के धारक श्री वीरसेन गणी तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती जैसे महान व्यक्तित्व का ही इस विषय में प्रवेश सम्भव है । मैं बुद्धिहीन एक बालक मात्र हूँ। अत: यहाँ जो कुछ भी मेरे द्वारा बताया जाने वाला है उसे इस विषय का अत्यन्त स्थूल तथा धुन्धला परिचय मात्र ही समझें। इसका यथार्थ परिचय करणानुयोग की शरण में जाये बिना सम्भव नहीं है। यह छोटी सी पुस्तक आपको उसकी शरण में जाने की प्रेरणा दे, बस इतनी ही मेरी प्रभु से प्रार्थना है। अध्यात प्रेमियों के हृदय में इस अनुयोग को पढ़ने की रुचि जागृत हो, बस इतनी मात्र ही मेरे भावना है।
जिनेन्द्र वर्ण
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