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________________ कर्म सिद्धान्त १३. संक्रमण आदि ६१ समयबद्ध भी कुछ निषेक च्युत होकर नं० २ से नं० ५ तक के समयों पर पूर्व क्रम से जा विराजे । इसी प्रकार नं० ८ से नं० ६ तक के कुछ निषेक अपने-अपने स्थानों से च्युत होकर उन्हीं नं० २ से नं० ५ तक के समयों पर जा बैठे। इस प्रकार नं० ६ से १० तक निषेकों की स्थिति घट गई, क्योंकि आगे जाकर उदय आने की बजाये अब वे पहले ही अर्थात् नं० २ से ५ वाले समयों के निषेकों के साथ ही उदय में आ जायेंगे । यह निषेकों की स्थिति का अपकर्षण है । विचार करने से पता चलता है कि उपरोक्त निषेकापकर्षण केवल आंशिक अपकर्षण है, पूर्ण नहीं, क्योंकि इससे जीव का जो १० समयों का संसार बन्ध पहले था वही अब भी है। जब तक किसी समय पर एक भी निषेक शेष है तब तक उस निषेक के समय में आने वाले उदय-फल से वह मुक्त नहीं हो सकता । इसलिये कल्याणार्थी साधकों को तपश्चरण के द्वारा पूर्ण- अपकर्षण करना ही इष्ट होता है जिससे कि उनके संसार की स्थिति कम हो सके। इसमें अन्तवाले उपरले समयों के सर्व निषेक अपने स्थान से हटकर नीचे आ जते हैं, और इस प्रकार कर्म की सामान्य स्थिति घट जाती है, क्योंकि जब उन अन्तिम समयों पर कोई निषेक ही शेष नहीं रहे तब उन समयों में उदय किसका आयेगा । अपकर्षण के फलस्वरूप जितने कुछ भी अन्त वाले समय द्रव्य-कर्म से खाली हो गए उतने समयों की स्थिति कम हो गई, ऐसा समझना । इस प्रकार अपकर्षण दो प्रकार का है- सर्व साधारण जीवों को नित्य होने वाला आंशिक अपकर्षण और तपस्वियों को होने वाला पूर्ण अपकर्षण। आंशिक अपकर्षण का शास्त्रीय नाम है 'अव्याघात अपकर्षण' और पूर्ण अपकर्षण का शास्त्रीय नाम है 'व्याघात अपकर्षण' । मोक्ष मार्ग में 'व्याघात अपकर्षण' ही कार्यकारी । इसके द्वारा साधक प्रतिक्षण हजारों तथा करोड़ों वर्षों की स्थिति का घात करता हुआ थोड़े ही समय में इनके बन्धन से मुक्त हो जाता है । जिस प्रकार स्थिति के अपकर्षण का विधान कहा, उसी प्रकार अनुभाग के अपकर्षण का भी जानना । अन्तर केवल इतना है कि वहाँ प्रदेशों की निषेक रचना की कल्पना की गई है, और यहाँ अविभाग प्रतिच्छेदों की निषेक रचना की कल्पना की जाती है । यह कल्पना वर्ग वर्गणा तथा स्पर्धक के रूप में की जाती हैं। शक्ति के यूनिट रूप एक अंश को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं। अनेकों अविभाग प्रतिच्छेदों के समूह को धारण करने वाला एक परमाणु 'वर्ग' कहलाता है, अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा जिसे परमाणु कहते हैं, अनुभाग की अपेक्षा या शक्ति-संचय की अपेक्षा उसे ही वर्ग कहते हैं । समान शक्ति वाले वर्गों या परमाणुओं के समूह का नाम 'वर्गणा' है । एक प्रकृति-बन्ध में विभिन्न शक्ति वाली जितनी वर्गणायें हैं उनके समूह का नाम एक 'स्पर्धक' है । इनका विशेष विस्तार आगम से जानना । सामान्य कथन नीचे किया जाता है।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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