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________________ ११. कर्म-बन्ध ५३ कर्म सिद्धान्त ९. आयु कर्म यद्यपि प्रकृति का विभाजन दिखाते समय ऊपर यह कहा गया है कि प्रत्येक समय-प्रबद्ध आठ प्रकृतियों में विभक्त हो जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । प्रतिक्षण बंधनेवाले समय प्रबद्ध आयु के अतिरिक्त सात प्रकृतियों में ही विभक्त होते हैं। आयु कर्म के बन्ध में कुछ विशेषता है। वह यह कि अन्य कर्मों की भाँति यह प्रकृति प्रतिक्षण नहीं बंधती । इसके बन्धन के लिये सारे जीवन में आठ अवसर आते हैं, जिन्हें आठ ' अपकर्ष' कहा जाता है। किसी भी प्राणी की हीन या अधिक सम्पूर्ण आयु को तीन से भाग देकर, दो तिहाई भाग बीत जाने पर जब एक तिहाई भाग शेष रह जाये, तब पहला अवसर या अपकर्ष आता है। उसमें आयु बंधनी सम्भव है पर निश्चित नहीं । यदि इस अवसर पर न बंधी तो पुनः उस तिहाई में दो तिहाई भाग बीत जाने पर दूसरा अवसर या अपकर्ष आता है। यहाँ भी न बंधी तो अब जो भाग शेष है उसका भी दो तिहाई बीत जाने पर तीसरा अपकर्ष आता है। इसी प्रकार प्रत्येक शेष भाग का दो तिहाई बीतने पर चौथा आदि के क्रम से आठ अपकर्ष आते हैं। आठवाँ अपकर्ष आयु का अंतिम भाग है। इस आठवें अपकर्ष में भी कदाचित न बंधे तो मृत्यु के क्षण से अंतर्मुहूर्त पहले अर्थात् एक क्षण पहले अवश्य बंधती है। इस नवीन बंधी आयु के अनुसार ही जीव को अगले भव में प्रवेश करना तथा वहाँ टिके रहना होता है । नरक आयु के बन्ध-वाले जीव नारकी के भवको प्राप्त करते हैं और मनुष्यायु के बन्धवाले जीव मनुष्य के भव को । हम सब परोक्ष दृष्टि वाले हैं, इसलिये नहीं जान सकते कि हमारी आयु के बन्ध-योग्य यह अपकर्ष-काल कब आ धमके। अतः अपकर्ष-काल आयेगा तो परिणाम सुधार लेंगे, ऐसा प्रमाद न करके अगले भव के लिये जागते तथा सोते सदा सावधान रहना चाहिए। कभी भी अत्यन्त कलुष अशुभ प्रवृत्ति करनी योग्य नहीं, क्योंकि कौन जाने कि वही आयु के बन्ध-योग्य अपकर्ष-काल हो । विशेष रूप से मृत्यु के समय परिणामों की सम्भाल अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि अधिकतर जीवों की अन्त में ही आयु बंधती है । उस समय जैसी वासना बन जाती है तदनुसार ही वह बंध जाती है। भरत जैसे ज्ञानी भी पूर्वभव में अन्तिम समय मृग- माणवक की वासना होने से मृग की योनि में चले गये थे । इसी कारण मृत्यु के समय यथायोग्य पवित्रता धारण करनी योग्य है । इसी प्रयोजन से समाधि-मरण कराया जाता है। मृत्यु से पहले व्यक्ति को चारपाई से उतार देना भी उसी का प्रतीक है परन्तु वह तभी संभव है जब कि सारे जीवन परिणाम सम्भालने का अभ्यास किया हो, अन्यथा वेदनायुक्त उस अवसर पर परिणामों की सम्भाल सम्भव नहीं ।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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