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________________ कर्म सिद्धान्त ५२. ११. कर्म-बन्ध इसलिये आगम में पृथक्-पृथक् परिणामों से पृथक्-पृथक् प्रकृतियों का बन्ध होने का . निर्णय किया गया है। यहाँ उस अंश के अनुसार अन्य प्रकृतियों के बन्धका भी अनुमान स्वयं कर लेना। - कैसे भाव से कैसी प्रकृति या कैसा अनुभाग बन्धता है, इसका कुछ अनुमान निम्न कथन पर से करना । पुस्तक तथा गुरु आदि की अविनय करना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञानियों के साथ द्वेष तथा ईर्ष्या करना तथा अन्य भी इसी प्रकार के परिणाम ज्ञान दर्शन शक्ति के विरोधी होने से, 'ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण' के बन्ध में हेतु होते हैं। किसी को पीड़ा पहुँचाना, अधिक शोक विलाप करना आदि स्वयं दुख के उत्कर्षरूप होने से 'असाता वेदनीय' के बन्ध के कारण हैं। इसी प्रकार दया तथा संयम आदि के परिणाम स्व तथा पर को सुखकारक होने से 'साता वेदनीय' के बन्ध के कारण हैं। वीतरागी जनों का अथवा देव गुरु शास्त्र तथा धर्म का अनादर तिरस्कार करना स्वयं धर्म की अथवा तत्त्वदृष्टिकी अवहेलनारूप होने से अनन्त संसार की हेतुभूता 'दर्शनमोह' प्रकृति के बन्ध का कारण है। क्रोधादि भाव या विषयासक्ति स्वयं मूर्छा तथा संसारासक्ति-रूप होने से 'चारित्र-मोह' के बन्ध के कारण हैं। इसी प्रकार अधिक आरम्भ तथा धनसञ्चय आदि के परिणाम अत्यन्त कलुष अथवा परशोषक होने से नरकायु के, मायाचारी स्वयं तिर्यक् या टेढ़ी होने से तिर्यञ्चायु की, कोमल परिणाम मानवीयता रूप होने से मनुष्यायु के और व्रत संयमादि के परिणाम ऊर्ध्वमुखी होने से देवायु के कारण हैं । मन वचन काय की वक्रता से अशुभ नाम कर्म का और सरल योगों से शुभनाम कर्म का बन्धं होता है। आत्मप्रशंसा तथा पर-निन्दा से नीच गोत्र का और इनसे विपरीत आत्मनिन्दा तथा । पर-प्रशंसा से उच्च गोत्र का बन्ध होता है। अन्य के ज्ञानादि कार्यों में अथवा धन लाभ में अथवा स्वास्थ्य तथा सुख आदि में विघ्न डालने से 'अन्तराय' का बन्ध होता है। इस कथन पर से अपने परिणामों का अनिष्ट फल जानकर उनसे हटने का प्रयत्न जागृत होना ही, कर्म-सिद्धान्त का प्रधान प्रयोजन है। ८. स्थिति-उद्भव-उक्त काषायिक परिणामों के कारण कर्म प्रदेशों में एक ओर जहाँ अनुभाग पड़ता है वहाँ ही दूसरी ओर उनमें स्थिति भी पड़ती है। स्थिति चाहे शुभ प्रकृतिकी हो या अशुभकी, संसारी जीव को संसार में रोक रखना ही उसका प्रधान कार्य है, इसलिये वह सर्वथा अशुभ ही मानी गई है। स्थिति में शभपने की कल्पना को अवकाश नहीं। इसलिये शुभ परिणामों से स्थिति कम बंधती है और अशुभ से अधिक । यह बात युक्त भी है क्योंकि परिणाम शुभ हों या अशुभ, हैं तो संसारोन्मुखी ही; इसीलिये संसार में रोकने का कारण हैं । ससार-विमुख होने से शुद्ध परिणाम से कोई स्थिति नहीं बंधती । इसलिये हमारी प्रवृत्ति जब तक शुद्ध परिणामों को धारण करके संसार के निर्मूलन में समर्थ नहीं हो जाती तब तक उसकी स्थिति कम करने के लिये, अशुभ से हटकर शुभ की ओर लगाने का प्रयत्न करते रहना चाहिये।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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