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११. कर्म-बन्ध
कर्म सिद्धान्त भावों का अनुमान करना योग्य है। अत: हम जहाँ भी कर्म शब्द लिखें वहाँ आप द्रव्य-कर्म जानना भाव-कर्म नहीं, और उस परसे भाव-कर्म का अनुमान स्वयं लगा लेना।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कर्म के अन्तर्गत चार विकल्प हैं—प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश। चारों ही विकल्प कर्म सिद्धान्त के प्रत्येक प्रकरण पर लागू होते हैं, परन्तु सुविधा तथा संक्षेप के लिये यहाँ केवल प्रकृति के आधार पर ही कथन किया जायेगा, शेष विकल्प स्वयं लागू कर लेना। कर्म-सिद्धान्त के अन्तर्गत १० अधिकार हैं जिन्हें १० करण कहते हैं-बन्ध, उदय, सत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उपशम, क्षय, (क्षयोपशम), निधत्त तथा नि:काचित । इनका कथन अब क्रम से किया जायेगा।
४. बन्ध के निमित्त-जीव के भावों का निमित्त पाकर कर्म का बन्ध होता है। जीव के भाव दो प्रकार के हैं—योग तथा उपयोग। योग अर्थात् प्रदेश परिस्पन्दन
और उपयोग अर्थात् रागादि भाव । योग द्रव्यात्मक है और उपयोग भावात्मक । इसी प्रकार कर्म में भी दो विभाग हैं-प्रकृति युक्त प्रदेश द्रव्यात्मक है और स्थिति युक्त अनुभाग भावात्मक है । द्रव्यात्मक कर्म के निमित्त द्रव्यात्मक और भावात्मक कर्म के निमित्त भावात्मक होने आवश्यक हैं । इसी कारण योग से प्रकृति तथा प्रदेश और उपयोग से स्थिति तथा अनुभाग बन्ध होता है। जैसा कि पर्याय वाले प्रकरण में बताया जा चुका है, वस्तु की गमनागमन रूप क्रिया या परिस्पन्दन पदार्थों का भेद तथा संघात (सम्मेल) कराने में कारण है और उसके भावों का अन्तरंग परिणमन भाव-निर्माण का हेतु है। इसलिए प्रदेश-परिस्पन्दनात्मक 'योग' केवल कर्म प्रदेशों के सम्मेल तथा बिछोह में कारण हो सकता है, उसके अनुभाग स्वरूप भावों में नहीं। इसी प्रकार उसका रागद्वेषात्मक उपयोग उन प्रदेशों में फलदान शक्ति उत्पन्न करने में हेतु हो सकता है प्रदेशों के चलनाचलन में नहीं।
५. स्थिति-अनुभाग-प्राधान्य किसी जीव को ८ प्रकृति बन्धती हैं, किसी को ७ या ६ आदि । किसी को हीन अनुभाग तथा हीन स्थितियुक्त बन्धती है और किसी को अधिक अनुभाग तथा अधिक स्थितियक्त । किसी को एक समय-प्रबद्ध में अधिक प्रदेश बन्धते हैं और किसी को कम । यहाँ अधिक प्रकृतियों के अथवा अधिक प्रदेशों के बन्ध से कोई हानि नहीं, क्योंकि हीन अनुभाग वाले अधिक भी प्रदेशों का उदय जीव को किन्चित् मात्र ही बाधा पहुँचाता है और अधिक अनुभाग वाले अल्पमात्र भी प्रदेशों का उदय जीव को अधिक बाधाकारक है; जैसे कि उबलते हुये जल की एक कटोरी भी शरीर में छाला डाल देती है और कम गर्म जल की एक बाल्टी भी शरीर को कोई हानि नहीं पहुँचाती। अत: कर्म-सिद्धान्त में सर्वत्र अनुभाग तथा स्थिति के ही बन्ध उदय उत्कर्षण आदि की प्रधानता है, प्रकृति तथा प्रदेश की नहीं।