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कर्म सिद्धान्त
११. कर्म-बन्ध अपहरण, रोग, स्वास्थ्य आदि के रूप में कुछ भी परिवर्तन होने पर चित्त में तदनुरूप परिवर्तन होने लगता है । वृद्धि में हर्ष, हानि में विषाद, स्वास्थ्य में हर्ष, रोग में शोक होता है। किसी के द्वारा किसी वस्तु का अपहरण किये जाने पर चित्त भी उस वस्तु के साथ बन्धा हुआ उसके पीछे-पीछे चलता है। यही भाव-बन्ध है।
द्रव्य-बन्ध दो प्रकार का होता है--पुद्गल का पुद्गल के साथ और पुद्गल का जीव प्रदेशों के साथ । इसी प्रकार भाव-बन्ध भी दो प्रकार का है-भाव का भाव के साथ और भाव का द्रव्य के साथ । जीव के क्रोधादि भावों को देखकर भय आदि का होना पहला है और बाह्य दृष्ट पदार्थों को देखकर उनके प्रति हर्ष शोक आदि का होना दूसरा है, इसी प्रकार बन्ध तत्त्व के अन्य भी अनेकों भेद किए जा सकते हैं।
३. कथन पद्धति-यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि कर्म-सिद्धान्त द्रव्य बन्ध की मुख्यता से कथन करता है और अध्यात्म शास्त्र भाव बन्ध की मुख्यता से, परन्तु तात्पर्य दोनों का एक है केवल कथन पद्धति में अन्तर है। क्योंकि द्रव्य तथा भाव कर्मों का परस्पर में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि किसी भी एक के जान लेने पर दूसरे का ज्ञान स्वत: हो जाता है। फिर भी समझने तथा समझाने के लिए द्रव्य-बन्ध की तरफ से कथन करने में सरलता पड़ती है, और भाव-बन्ध का कथन अत्यन्त विस्तृत तथा जटिल हो जाता है । इसका भी कारण यह है कि केवल स्वसंवेदन-गम्य होने से भावों का कथन असम्भव है । निमित्त की भाषा पराश्रित होने से सम्भव है और सर्व-जन-परिचित होने से सरल भी। _. कर्म-सिद्धान्त की पद्धति में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को जानने के लिए द्रव्य-कर्म का आश्रय लेना अनिवार्य हो जाता है। अत: आगे-आगे के प्रकरणों में द्रव्य-कर्मों के बन्ध उदय आदि का ही कथन किया जायेगा, उनके निमित्त से होने वाले जीव-भावों का नहीं। जीव-भावों का परिज्ञान स्वयं कर लेना योग्य है । द्रव्य-कर्म की दिशा में जहाँ जिस प्रकृति का बन्ध होना कहा गया है, वहाँ जीव के भाव-कर्म की दिशा में यह बात अवश्यम्भावी है कि जीव के भावों में उस समय उसी प्रकार का विकल्प अथवा कषाय कर रहा है, अन्यथा उस प्रकृति का बन्ध होना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार जहाँ जिस प्रकृति का उदय होना कहा गया है वहाँ यह बात अवश्यम्भावी है कि जीव के भावों में उस समय उसी प्रकार का विकल्प अथवा कषाय उदित हो गयी है अथवा तदनुरूप उसके ज्ञान दर्शन आदि गुण आच्छादित हो गए हैं, अन्यथा कर्म का उदय कहना निष्प्रयोजन हो जायेगा। जिस प्रकार थर्मामीटर का पारा देखकर व्यक्ति के ज्वर की तरतमता का ज्ञान स्वयं हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्य-कर्म के बन्ध उदय आदि पर से जीव के भावों का अनुमान स्वयं हो जाता है। इसलिये कर्म-सिद्धान्त जीव के भावों को मापने के लिये थर्मामीटर के समान है। द्रव्य-कर्म तथा जीव के भाव इन दोनों का कथन साथ-साथ करना क्योंकि बहुत जटिल हो जाता है, इसलिये कर्म-सिद्धान्त की शैली में द्रव्य कर्म के बन्ध आदि पर से ही जीव के