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________________ रहस्योद्घाटन अहो ! ऋषियों की परमानुकम्पा कि जो नवनीत उनके समाधिगत चित्त में प्रादुर्भूत हुआ, जिस अमृत को उन्होंने अनेकों बलिदान देकर कठोर तपस्याओं से प्राप्त किया, उसको वे बाँट रहें हैं नि:शुल्क । जो आये वह पीकर अमर हो जाये। कितनी करुणा है तथा कितना वात्सल्य है उन्हें प्राणी मात्र से कि विषय वासना की भट्टी में भड़ा भड़ जलते देखकर किस प्रकार उन्हें वहाँ से निकाल लेना चाहते हैं। जिस देव को उन्होंने हृदय की गहन गुफा में स्थूल व सूक्ष्म अनेकों आवरणों का भेदन करके बड़े परिश्रम से खोज निकाला है, जिसके कुछ क्षण के दर्शन मात्र से भव भव के सन्ताप शान्त हो जाते हैं, कृतकृत्यता का अनुभव होता है, और समस्त वासनायें शान्त होकर अक्षयानन्द की प्राप्ति होती है, उस प्रभु के दर्शन कर लेने से उनकी वाणी सहज ही खिर उठी, कि ओ जगवासियों ! तुम भी उस देव को अपने हृदय में खोजो। यह परमात्मा इस देह रूप देवालय में तिष्ठता है, परन्तु खेद है कि इन आँखों से उसका देखा जाना सम्भव नहीं है। उसके लिये दिव्य चक्ष चाहिये जिसकी प्राप्ति के लिये हृदयगत सूक्ष्म से सूक्ष्म आवरण का भेदन करना होगा। कुछ मात्र स्थूल आवरणों के भेदन से प्राप्त किंचित् प्रकाश में कदाचित् उसके दर्शनों की प्रान्ति हो जाया करती है। अत: भो भव्य ! सभी प्रान्तियों से बचकर उस महात्मा का दर्शन स्पर्शन तथा अनुभवन करो। प्रस्तुत ग्रन्थ इन प्रान्तियों का कारण दर्शाकर उनसे बचने का उपाय बताता है इन प्रान्तियों का कारण है कर्म । यद्यपि इस सिद्धान्त का विवेचन अन्य दर्शनकारों ने भी किया है परन्तु इस विषय का जितना विशद विवेचन जैनाचार्यों ने किया है वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता । संक्षेप में उसका परिचय निम्न प्रकार है वस्तु मुख्यतया दो प्रकार की होती है-द्रव्यात्मक तथा भावात्मक । पारमार्थिक मार्ग में द्रव्य की अपेक्षा भाव ही सर्वत्र प्रधान होता है । जीव के भावों का निमित्त पाकर 'कर्म' नामक एक सूक्ष्म जड़ द्रव्य जीव के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाही होकर स्थित हो जाता है । जीव का वह भाव तो भाव-कर्म कहलाता है और उसके निमित्त से जो सूक्ष्म जड़ द्रव्य उस में प्रविष्ट होता है वह द्रव्य-कर्म कहा जाता है। जीव तथा जड़ का यह सम्बन्ध अनादिगत है । खान में से निकले स्वर्ण-पाषाण की भाँति जीव के साथ मन वचन काय इन तीन योगों का सम्बन्ध प्राकृतिक है, जिनके द्वारा वह नित्य ही कुछ न कुछ कर्म करता रहता है । इस कर्मका संस्कार चित्त-भूमि पर अंकित होता जाता है। प्रथम क्षण में जो संस्कार उसमें प्रवेश पाता है वह 'आस्रव' कहलाता है और उत्तरोत्तर उसका परिपुष्ट होते रहना ‘बन्ध' कहा जाता है । बन्ध को प्राप्त यह संस्कार भीतर ही भीतर जीव को पुन: पुन: वही कर्म करने के लिये उकसाया करता है । करणानुयोग में इस सूक्ष्म जड़ द्रव्य को 'कर्म' संज्ञा दी गई है उसका कारण यह है कि इसके द्वारा जीव के सूक्ष्म से
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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