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९. मोहनीय प्रकृति
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कर्म सिद्धान्त
इष्टानिष्ट बुद्धि रखते हैं। उनका उपभोग करने में सुख मानते हैं और उनके वियोग में दुःख। उन्हीं की महिमा का गान करते हैं, और उन्हीं की प्राप्ति के लिए अपना सर्व पुरुषार्थ उँडेलते हैं । उनके पीछे सत्य-असत्य तथा न्याय-अन्याय का भी विवेक खो देते हैं, परम तृप्तिकर अन्तरंग चैतन्य विलासके प्रति एक क्षण को भी नहीं झुकते ।
" बाह्य विषयों में ही सुख है, यह दृष्ट शरीर ही मैं हूँ, इसके बिना मेरी स्थिति सम्भव नहीं, स्त्री पुत्रादि अथवा धन धान्यादि ही मेरी सम्पत्ति है " ऐसी श्रद्धा रहने के कारण, तत्त्वोपदेश मिलने पर भी उनकी बुद्धि तथा पुरुषार्थ उधर से हट कर अन्तस्तत्त्व की ओर नहीं झुकते, भले ही मुख से उस उपदेश को सत्य व कल्याणमय कहते रहें । उनकी वह श्रद्धा इतनी अटल होती है कि चौबीस घण्टों की अपनी प्रवृत्ति में तनिक सा भी हेरफेर करने को वे तैयार नहीं । वे पूजा आदि धार्मिक क्रियायें कर लेते हैं, परन्तु बेकार समझकर अथवा आगामी भवों में उन्हीं भोगों की प्राप्ति के लिए । शास्त्र पढ़ते हैं, दूसरों को उपदेश भी देते हैं, परन्तु अन्तरंग का झुकाव उन भोगों के प्रति ही रहता है ।
यदि किसी के कहने सुनने से वैराग्य भी आया अथवा भोगों आदि का त्याग भी किया, व वनवासी भी बन गया, कठोर तपश्चरण भी किए, तो भी अन्तरंग का उपयोग अन्तस्तत्त्व की ओर नहीं झुकता । या तो उस त्याग आदि को ही धर्म मानकर सन्तुष्ट हो जाता है और या " मैं इस त्याग को कैसे बढ़ाऊँ, कैसे अधिक से अधिक तप की शक्ति जागृत करूँ" इत्यादि प्रकार के विकल्पों में उलझा रहता है, समता तथा शमता की ओर नहीं झुकता । 'मोक्ष ऐसा सुन्दर तथा सुखंकर है, मेरा मार्ग ही सच्चा है, अन्यमत-मान्य मार्ग झूठे हैं' इत्यादि प्रकार के विकल्प करता है । 'इतना तो मैंने सफलतापूर्वक कर लिया, अब यह व्रत और लूँगा, और इस बाधा को भी टालकर सर्वथा निर्बाध हो जाऊँगा, तब आनन्द में स्थिति करूंगा, इत्यादि प्रकार के संकल्प करता रहता है । तात्पर्य यह कि सदा बाह्य के विषयों का ही विकल्प करता है, कभी विधि रूप से और कभी निषेध रूप से सर्व विकल्पों से शून्य उस परम तत्त्व की ओर न झुकने के कारण समता तथा शमता-रूप परम चारित्र से सदा वंचित रहता है । 'विषयों का त्याग ही इष्ट है' ऐसी श्रद्धा के कारण उसका वैराग्य भी मिथ्या है।
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अन्तस्तत्त्व की प्रतीति से शून्य, भोगों तथा विषयों के सद्भाव में या उनके अभाव में ही इष्ट अनिष्ट की कल्पना करने वाली श्रद्धा मिथ्या है। निज स्वरूप के प्रतिमूर्च्छित होने के कारण उसे मोह कहते हैं। श्रद्धा दर्शन - वाचक है, इसलिए इस मिथ्या श्रद्धा रूप मोह को 'दर्शन- मोह' कहा गया है, और उसकी निमित्तभूता कर्म-प्रकृति को 'दर्शन मोहनीय' कहते हैं। इसका उपशम या क्षय हो जाने पर अन्तस्तत्त्वोन्मुखी सम्यक् श्रद्धा जागृत होती है ।