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________________ ९.मोहनीय प्रकृति १. मोहनीय, २. दर्शन मोहनीय; ३. चारित्र; ४. चारित्र मोहनीय; ५. गुण विकास क्रम, ६. २८ प्रकृति। १. मोहनीय—इन आठों प्रकृतियों में से मोहनीय नाम की तीसरी प्रकृति मोक्ष मार्ग के प्रकरण में प्रधान है; क्योंकि संसार का मूल कारण वही है, और उसी का विच्छेद हो जाने पर जीव मुक्त होता है। अत: उसका कुछ विशेष कथन करना आवश्यक है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, संसार का या मानसिक वेदनाका कारण राग-द्वेषादि भाव-कर्म है। राग-द्वेषादि की उत्पत्ति का आधार एक मात्र श्रद्धा है क्योंकि उसके कारण ही बाहर के भौतिक विषयों को सुख-दुख का कारण माना जाता है.। ज्ञान व दर्शन आदि की हीनता से जीव को कोई हानि नहीं होती अथवा वीर्य में कुछ कमी हो जाने से भी कुछ विशेष बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि इतना ज्ञान दर्शन तथा वीर्य फिर भी जीव में बना रहता है जितने से कि वह अपना लौकिक या पारमार्थिक प्रयोजन सिद्ध कर सके। दूसरी बात यह भी है कि जीव की ये तीनों शक्तियाँ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के प्रभाव से कम तो अवश्य हो जाती हैं, परन्तु विकृत नहीं होती । बन्धन में डालने वाले भाव रागादिक ही हैं, क्योंकि ये स्वयं विकार स्वरूप हैं। ज्ञानादि को विकृत करके उनको भी अन्तरंग तत्त्व के दर्शन करने की आज्ञा ये नहीं देते हैं। इसीलिये इन भावों को मूर्छा या मोह या अज्ञान कहा जाता है। मोह दो प्रकार का है—श्रद्धारूप तथा प्रवृत्ति-रूप। श्रद्धा अन्दर में रहने वाली किसी धारणा-विशेष का नाम है, जिसके कारण व्यक्ति की प्रवृत्तियों में अन्तर पड़ा करता है, जैसे 'भोगों में सुख है' ऐसी श्रद्धावाला कभी भी धर्म की ओर नहीं झुक सकता। प्रवृत्तियाँ तो बाहर में दिखाई दे जाती हैं परन्तु उनकी मूलभूता श्रद्धा अदृष्ट रहती है, जिसका अनुमान उन प्रवृत्तियों पर से ही किया जा सकता है। श्रद्धा को दर्शन और प्रवृत्ति को चारित्र कहते हैं। इसलिये इनकी निमित्त-भूता मोहनीय प्रकृति भी दो रूप है-दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय। २. दर्शन मोहनीय-मोक्ष मार्ग की अपेक्षा श्रद्धा दो जातियों में विभक्त है-मिथ्या तथा सम्यक् । समस्त लौकिक जीवों की श्रद्धा तत्त्व विमुख होने के कारण मिथ्या है परन्तु कुछ विरले व्यक्तियों को बड़े सौभाग्य तथा सत्पुरुषार्थ से सम्यक् श्रद्धा की प्राप्ति होती है। "मैं कौन हूँ, चेतन आत्मा या जीव क्या है, उसका अनुभवगम्य भावात्मक रूप क्या है' ऐसे तात्त्विक विवेक से शून्य संसारी जीव अन्तरंग में प्रकाशमान परम पवित्र तथा शान्त सुन्दर उस तत्त्व का वेदन न होने के कारण शरीर, आयु व भोगों में ही मैं तथा मेरे पन की कल्पना करते हैं और उनमें ही
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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