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________________ १९ ४. जीव परिचय कर्म सिद्धान्त इन्द्रियों का नहीं बल्कि उनके पीछे बैठे जीव का है, जिसके निकल जाने पर ये सब निस्तेज हो जाती हैं। 2. शरीर-निर्माण-क्रम–एक शरीर को त्यागकर, मृत्यु हो जाने पर यह एक सेकेण्ड भी शरीर-रहित नहीं रहता। तुरन्त ही दूसरा शरीर धारण कर लेता है । यद्यपि तुरन्त धारण किया हुआ वह शरीर दृष्टिगत नहीं होता, परन्तु कुछ काल पश्चात् व्यक्त होने से उसकी यह अव्यक्त अवस्था भी सिद्ध है। शरीर को धारण करने का कुछ क्रम है। योनि स्थान में प्रवेश करते ही वह अपने शरीर के योग्य कुछ आहारक वर्गणाओं का ग्रहण करता है, जो उसे मिट्टी बीज जल से, वायु तथा प्रकाश से, शरीरों के मैल से अथवा माता पिता के रज वीर्य से प्राप्त होती हैं। ये आहारक वर्गणायें उसके साथ पुद्गल बन्ध को अथवा द्रव्य बन्ध को प्राप्त होकर एक सूक्ष्म-पिण्ड का रूप धारण कर लेती हैं, जो प्रतिक्षण अन्य-अन्य वर्गणाओं को अपने में सम्मिलित करता हुआ बराबर वृद्धि को प्राप्त होने लगता है। इसे 'आहार पर्याप्ति' कहते हैं। इस प्रकार थोड़े ही समय में एक सूक्ष्म पिण्ड तैयार हो जाता है जो यन्त्रादि की सहायता से भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं बन पाता । इसका नाम 'शरीर-पर्याप्ति' है। अब इस पिण्ड में आहारक वर्गणाओं के सम्मेल के साथ-साथ कुछ इन्द्रिय भी अव्यक्त रूप से प्रगट होने लगती हैं और कुछ समयों तक यह क्रम चलता रहता हैं। इसे 'इन्द्रिय-पर्याप्ति' कहते हैं। अब इन तीनों कार्यों के अतिरिक्त सूक्ष्म रूप से कुछ समयों तक श्वास-प्रश्वास योग्य आहारक वर्गणाओं का अर्थात् वायु का संचार भी उस पिण्ड में प्रारम्भ हो जाता है। इसे 'श्वासोच्छवास पर्याप्ति' कहते हैं। तत्पश्चात् भाषा वर्गणाओं के सम्मेल से बोलने की शक्ति का उदित हो जाना 'भाषा पर्याप्ति' और मनो-वर्गणाओं का सम्मेल'मनो पर्याप्ति' कहलाती है। ___पृथक्-पृथक् ये छहों पर्याप्तिये कुछ सेकेण्डों में पूरी हो जाती हैं। कुछ सेकेण्डों में या एक दो मिनट में ही यह सब क्रम पूरा हो जाने पर वह जीव पर्याप्त कहलाने लगता है, परन्तु अब भी उसका शरीर इन्द्रिय-ग्राह्य हो नहीं पाता । तत्पश्चात् छहों प्रकार का यह क्रम युगपत् चलता रहता है, और इस प्रकार अपने-अपने योग्य काल के पश्चात् व्यक्त होने लगता है। गर्भस्थ मनुष्य का बालक तीन महीने पश्चात् सांगोपांग व्यक्त दशा को प्राप्त होता है । पक्षियों के अण्डों में यह पिण्ड कुछ दिनों में और विष्टा आदि में उत्पन्न होने वाले कीड़ों का कुछ घण्टों में तैयार हो जाता है। वनस्पति का प्रथम अंकुर भी कुछ घण्टों या दिनों में प्रकट हो जाता है। बराबर उन वर्गणाओं के साथ बन्ध को प्राप्त होता हुआ वह बढ़ता रहता है और एक दिन सांगोपांग रूप में क्रियाशील दिखाई देने लगता है। जीवन पर्यन्त इन वर्गणाओं का ग्रहण बराबर चलता रहता है, कुछ वायु मण्डल से कुछ सूर्य-प्रकाश से और कुछ अन्न से। इस प्रकार यह जान लेना सरल है कि 'अण्डे में प्राण नहीं होते' ऐसा कहने वालों की बात कहाँ तक सत्य है।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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