________________
कर्म सिद्धान्त
४. जीव परिचय 'यदि जीव बड़े शरीर-प्रमाण है तो छोटे शरीर में कैसे समायेगा, और यदि छोटे शरीर-प्रमाण है तो बड़े शरीर को कैसे व्याप्त करेगा?', इस शंका का समाधान करने के लिए जैन दर्शनकारों ने पहले से ही जीव में संकोच-विस्तार की एक शक्ति-विशेष को स्वीकार कर लिया है, जिसके कारण छोटे शरीर में जाने पर वह सुकड़कर छोटा और बड़े शरीर में जाने पर फैल कर बड़ा हो जाता है । पूरा का पूरा फैलने लगे तो समस्त लोक में व्याप जावे और सुकड़ने लगे तो इतने छोटे शरीर में भी समा जावे जो कि माईक्रोस्कोप या अन्य किसी यन्त्र से भी दिखाई न दे सके, अर्थात् सूक्ष्म-शरीर में भी आ जाए। इसीलिए उसका पूरा माप लोकाकाश प्रमाण अंसख्यात प्रदेशी कहा गया है अर्थात् पूरा फैल जाने पर भी इससे बड़ा होकर अलोक में नहीं जा सकता। बड़े तथा छोटे शरीरों की अपेक्षा जीव के अनेकों भेद हो जाते हैं। कुछ तो हजारों योजन प्रमाण पहाड़ सरीखे शरीर को धारण करने वाले हैं और कुछ इतने छोटे शरीर वाले हैं कि बालाग्रपर भी अनेकों समा सकें। सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों की भाँति सूक्ष्म-शरीरधारी जीव भी सशरीर एक दूसरे में अवगाह पाते हुए एक ही क्षेत्र में अनेक रह सकते हैं।
स्पर्शन, रसना, धाण, चक्षु, श्रोत्र तथा मन ये छः ज्ञानेन्द्रियाँ स्वीकार की गई हैं, जिनकी अपेक्षा जीव अनेक प्रकार का है। कुछ स्पर्शन मात्र को धारण करने से एकेन्द्रिय हैं, कुछ स्पर्शन तथा रसना को धारण करने से द्वीन्द्रिय, कुछ नासिका सहित त्रीन्द्रिय, कुछ चक्षु सहित चतुरेन्द्रिय और कुछ श्रोत्र सहित पंचेन्द्रिय हैं। श्रोत्र सहित पंचेन्द्रियों में भी कुछ मन-रहित होने से असंज्ञी हैं और मन-सहित होने से संज्ञी हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति एकेन्द्रीय हैं और क्योंकि भय खाकर स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए भागं दौड़ नहीं कर सकते इसलिए 'स्थावर' कहे जाते हैं । द्वीन्द्रिय कीड़े आदि से लेकर पंचेन्द्रिय पशु, पक्षी, मनुष्य पर्यन्त सर्व जीव, अपनी रक्षा के अर्थ इधर उधर भाग दौड़ करते हैं अथवा कर सकते हैं। इसीलिए 'स' कहे जाते हैं। अन्य प्रकार भी जीवों के अनेक भेद-प्रभेद किये जा सकते हैं, परन्तु विस्तार के भय से यहाँ इतना मात्र ही परिचय पर्याप्त है।
यद्यपि चलते फिरते इन शरीरों को देखकर यह भ्रम होने लगता है कि ये शरीर ही जीव हैं, और उपचार से कहने में ऐसा ही आता भी है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं. है। याद रखिये कि जीव अमूर्तीक है इसलिए मूर्तीक शरीर जीव नहीं हो सकता। शरीर में रहने के कारण यद्यपि अगले प्रकरणों में उसे मूर्तीक भी कह दिया जायेगा, परन्तु उसका यह अर्थ कदापि न समझना कि वह जड़ स्कन्धों की या शरीरों की भाँति रूप रस गन्ध स्पर्श युक्त इन्द्रिय ग्राह्य है। जीव तिलों में तैलवत् या अग्नि में प्रकाशवत् इस शरीर के भीतर अवस्थित है, जिसकी प्रतीति जानने देखने तथा अनुभव करने के चिन्हों से ही होती है । मृत्यु हो जाने पर वह शरीर को त्याग देता है, इसीलिए शरीर सर्वथा जड़ बनकर रह जाता है। जानने देखने का काम वास्तव में