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चतुर्थ अधिकार। तैरने लगे, अग्नि ठंढी होजाय, किन्तु हिंसा द्वारा धर्मकी प्राप्ति त्रिकालमें भी संभव नहीं हो सकती। जो भील लोग धर्मकी कल्पना कर जंगलमें आग लगा देते हैं, वे विष खाकर प्राणकी रक्षा चाहते हैं । अथवा जो लोलुपी मनुष्य जीवोंकी हत्याकर उनका मांस खाते हैं, वे महादुःख देनेवाली नरंकगतिं में उत्पन्न होते है । जीवोंकी हिंसा करनेवालेको मेरू पर्वतके समान नर्कके दुख भोगने पड़ते हैं। न तो छाछ से घी निकाला जा सकता हैं न विना सूर्यके दिन हो सकता है, न लेप मात्रमें मनुष्यकी क्षुधा मिट सकती है, उसी प्रकार हिंसाके द्वारा सुखप्राप्तिकी आशा करना दुराशा मात्र हैं। प्राणियों पर. दया करनेवाले मनुष्य युद्ध में, वनमें, नदी एवं पर्वतों पर भी निर्भय रहते हैं। परहिंसकों की आयु अतिअल्प होती है। या तो वे उत्पन्न होते ही मर जाते हैं, या बादमें किसी समुद्र नदी आदिमें डूबकर मृत्युको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार असत्य भाषणसे भी महान पाप लगता है, जिसके पापोदयसे नरकादिके दुख प्राप्त होते हैं । यद्यपि यश बड़ा आनन्द दायक होता हैं, पर असत्य भाषणसे वह भी नष्ट हो जाता हैं। असत्य विनाश का घर है, इससे अनेक विपत्तियां आती हैं। यह महापुरुषों द्वारा एक दम निन्दनीय है एवं मोक्षमार्गका अवरोधक है। अतएव. आत्मज्ञानसे विभूषित विद्वान पुरुषोंको चाहिए कि वे कभी असत्यका आश्रय न लें। देवोंकी आराधना करनेवाले सदा सत्य बोला करते हैं । सत्यके प्रसादसे विष भी अमृतके तुल्य हो जाता है:। शत्रु भी मित्र हो. जाते हैं , एवं सर्प