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द्वादशानुप्रेक्षा
संसारानुप्रेक्षा पंचविहे संसारे, जाइजरामरणरोगभयपउरे।
जिणमग्गमपेच्छंतो, जीवो परिभमदि चिरकालं ।।२४।। जिन भगवानके द्वारा प्रणीत मार्गकी प्रतीतिको नहीं करता हुआ जीव, चिरकालसे जन्म, जरा, मरण, रोग और भयसे परिपूर्ण पाँच प्रकारके संसारमें परिभ्रमण करता रहता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पाँच परिवर्तन ही पांच प्रकारका संसार कहलाते हैं।।२४।।
द्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप सव्वे वि पोग्गला खलु, एगे भुत्तुझिया हि जीवेण।
असयं अणंतखुत्तो, पुग्गलपरियट्टसंसारे।।२५।। पुद्गलपरिवर्तन (द्रव्यपरिवर्तन)रूप संसारमें इस जीवने अकेले ही समस्त पुद्गलोंको अनंत बार भोगकर छोड़ दिया है।।२५।।
क्षेत्रपरिवर्तनका स्वरूप सव्वम्हि लोयखेत्ते, कमसो तं णत्थि जंण उप्पण्णं।
उग्गाहणेण बहुसो, परिभमिदो खेत्तसंसारे।।२६।। समस्त लोकरूपी क्षेत्रमें ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह क्रमसे उत्पन्न न हुआ हो। समस्त अवगाहनाओंके द्वारा इस जीवने क्षेत्र संसारमें अनेक बार भ्रमण किया है।
भावार्थ -- क्षेत्रपरिवर्तनके स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तनकी अपेक्षा दो भेद हैं। समस्त लोकाकाशमें क्रमसे उत्पन्न हो लेनेसे जितना समय लगता है वह स्वक्षेत्रपरिवर्तन है और क्रमसे जघन्य अवगाहनासे लेकर उत्कृष्ट अवगाहना तक धारण करनेमें जितना समय लगता है उतना परक्षेत्रपरिवर्तन है। इस गाथामें दोनों प्रकारके क्षेत्रपरिवर्तनोंकी चर्चा हो रही है।।२६।।
कालपरिवर्तनका स्वरूप अवसप्पिणिउवसप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु।
जादो मुदो य बहुसो, परिभमिदो कालसंसारे।।२७।। यह जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालकी समस्त समयावलियोंमें उत्पन्न हुआ है तथा मरा है। इस तरह इसने काल संसारमें अनेक बार परिभ्रमण किया है।।२७ ।।
भवपरिवर्तनका स्वरूप णिरयाउजहण्णादिसु, जाव दु उवरिल्लया दु गेवेज्जा। मिच्छत्तसंसिदेण दु, बहुसो वि भवट्ठिदी भमिदो।।२८।।