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भद्रबाहु परित्रसमाचार सुनेतो उसौसमय स्वामी के पास आये और विनयसे मस्तक नवाकर बोले-भगवन् ! आपके गमन सम्बन्धि समाचारोंके सुननेसे भक्तिके भारसे वश हुआ हम लोगोंका मन क्षोभको प्राप्त होता है ॥६६॥ ॥६॥ नाथ ! हमलोगों पर अनुग्रह कर निश्चलतासे यहीं पर रहैं । क्योंकि-गुरूके विना सब पशुओं के समान समझाजाता है।६८॥जिसप्रकार सरोवर कमलके विना, गन्धरहित पुष्प सुगन्धके विना, हाथी दांतके विना शोभाको प्राप्त नहिं होता उसीतरह मव्यपुरुष गुरूके विना नहीं शोभते ॥ ६९ ॥
इसप्रकार श्रावकोंके बचनोंको सुनकर भद्रबाहु मुनिराज बोले-उपासकगण ! तुम्हें मेरे बचनोंपर भी ध्यान देना चाहिये । देखो ! इस मालवदेशमें बारह वर्ष पर्यन्त अनावृष्टि होगी तथा अत्यन्त भयंकर दुर्मिक्ष पड़ेगा । इसलिये व्रत भङ्ग होनेके भयसे साधुओंको इधर नहिं रहना चाहिये । ७०-७१ ॥ समस्त श्रावक क्षुत्वेति सकलाः श्रादा अभ्येस्स मुनिनायकम् । प्रणिपत्य वचः प्रोचुनियानत. मस्त्रकाः ॥ ६ ॥ विजिहीर्षों समाकर्ण्य भगवन् | भवतामतः । क्षोभमेति मनो माकं मफिभारवशीकृतम् ॥ १८ ॥ स्वामित्र रूपा कुत्ला स्थीयता स्थिरचेतसा । यतो गुरू विना सर्वे भवन्ति पशुसानिमाः ॥ १९ ॥ दवाकरो विनापनं निर्गन्ध इसमें यथा । माति दन्त बिना वन्ती तंद्वद्भव्योगु विना ॥५-|| इति तद्वाक्यतो. वोचच्छातात मका द्विादशाऽन्दमनावृष्टिमध्ये देशे भविष्यति॥ दुभिक्ष गैरवं वापि ततो युछन योगिनाम्। कदाचिदत्र संस्थातुं मनभायात्मनाम् ॥२॥