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समूलभाषानुवाद |
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तथा सामन्तादि सहित महाविभूति पूर्वक नगरसे बाहिर निकले || २० - २५|| और आचार्य महाराज के पास जाकर विनय भावसे उनकी प्रदक्षिणाकी तथा जलगन्यादि द्रव्योंसे उनके चरणोंकी पूजन की । पश्चात् क्रमसे ओर २ मुनियोंकी भी अभिनन्दना स्तुति तथा पूजनादि करके उनके मुखारविंद से सप्ततत्व गर्भित धर्मका स्वरूप सुना। उसके बाद मौलिविभूषित मस्तक से भक्ति पूर्वक प्रणाम कर और दोनों करकमलोंको जोड़कर भद्रबाहु श्रुतकेवली से पूछा । नाथ ! मैंने रात्रिके पिछले प्रहरमें कल्पद्रुमकी शाखाका भंग होना प्रभृति सोलह स्वप्न देखे हैं । उनका आप फल कहें । राजाके बचन सुनकर - दांतोंकी किरणोंसे सारे दिशा मण्डलको प्रकाशित करनेवाले योगिराज भद्रबाहु बोले- राजन् ! मैं खप्नोंका फल कहता हूँ उसे तुम स्वस्थ चित्त होकर सुनो। क्योंकि इनका फल - पुरुषोंको वैराग्यका उत्पन्न करने वाला तथा आगामी खोटे कालका
समासाद्य स सूरीशं परोस्य प्रभयान्वितः । समभ्यर्च्य गुरोः पादावसा दिकैः ॥ १६ ॥ प्रणनाम महाभक्त्या क्रमादन्यमुनानपि । सहतत्वान्वितं धर्ममधी श्रीरुवाक्यतः ॥ २७ ॥ ततोऽतिभतितो नवा मौलिमण्डितमदिना । कुसीकृतइस्ताच्यः पप्रच्छेति श्रुतेक्षणम् ॥ २८ ॥ नित्यामहमदाक्षं स्वमान्पोटकाकानिमान् । सुरसासामवादीत्फलं रूपमेश माम् ॥ २९ ॥ निशम्य भापित मान भाषितं खनम् दंतायोतितानेपदिक्वकं योगिनायकः ॥ ३० ॥ प्रणिधाय मरो
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