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________________ भद्रबाहु-चरित्र । वस्था अपना अधिकार जमा लेगी तब तप तथा व्रत कहाँ? दूसरे ये भोग पहले तो कुछ सुन्दरसे मालूम पड़ते हैं। परन्तु वास्तवमें-सर्पके शरीर समान दुःखके देनेवाले हैं, सन्तापके करने वालेहैं और परिपाकमें अत्यन्त दुःख के देनेवाले हैं ॥१०७॥ कुगतिरूप खारेजलसे भरे हुये तथा पीडारूपमकरादि जन्तुओंसे कलंकष इस असार संसार समुद्रमें जीवोंको एक धर्मही शरण है।।१०८॥देखो! मोही पुरुष इन भोगोंमें व्यर्थ ही मोह करते हैं किन्तु जो बुद्धिमान हैं वे कभी मोह नहीं करते इसलिये क्या मोक्षका साधन संयम ग्रहण करूं १ ॥१०९॥ इत्यादि नाना प्रकारके उत्तम २ वचनोंसे वैराग्यहृदय भद्रबाहुने असन्त मोहके कारण अपने मातापितादि समस्त-बन्धुओंको समझाया । और उसके बाद-मातापिता की आज्ञासे-संयमके ग्रहण करनेकी अभिलाषासे गोवईनाचार्यकेपासगया॥११०॥११९और उन्हें नमस्कार दृष्यासदे तत्र क तपो क जपो व्रतम् ॥ १.६ ॥ भोगास्तु भोगिभोगाभा दुःखदाखापकारकाः । मापातमधुराकारा विपाके तीबदाखदाः ॥१०७ ॥ संसारसागरेऽसार गतिक्षारजीवने । यातनानकसकाणे घरएयं धर्ममहिनाम् ॥ १० ॥ मोमुहाति सुधा मूढो न चैतेषु विचक्षणः । ततोऽहं कंग्रही यामि संयम शिवसाधनम् ॥१०॥ बलादिविविधैाक्यमद्रोऽसौ समन्बुषत् । पित्रादीनिखिलान्बन्धून्महामोहनिबन्धनान् ॥ १०॥ ततो निदेवतस्तेषां . निर्वेदाहितमानसः । अयासीत्संयम लिप्सुगोवर्द्धनवणाधिपम् | 113 प्रणम्य प्रनयानोचे सुधीस्तं विहिताअलि । देहि.
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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