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के शास्त्र अभीतक अपने में विद्यमान बताते हो तो कोई हर्ज नहीं । हम तो यही चाहते हैं कि - किसी तरह वस्तुका निश्चय होजाय ! परन्तु साथ ही इतनी बातें और सिद्ध करना होंगी ? यदि वे शास्त्र खास गणधरोंके बनाये हुये हैं तो जिस २ अग्रफी तुम्हारे ही शास्त्रों में जितनी २ संख्या कही है उतनीकी विधि ठीक २ मिला वो ? यांद कहोगे कि कलियुग में बहुतसा भाग विच्छेद होगया है । अस्तु, यही सही, परन्तु उन शास्त्रोंके प्रकरण देखनेसे तो यह नहीं जाना जाता कि यहांका भाग खण्डित होगया है वह तो आदि से लेकर अन्त पर्यन्त विल्कुल ससम्बद्ध मालूम पड़ता है फिर यह कैसे माना जाय कि इसका भाग नष्ट होचुका है ? और न इतनी पदोंकी संख्या ही मिलती हैं, जितनी शास्त्रों में लिखी है। फिर भी कदाचित्कहो कि - पद तो हम व्याकरणके नियमानुसार सुबन्त और तिडन्तको मानेंगे। खैर ! यही सही, परन्तु ऐसा मानने पर तो वह संख्या शास्त्रके कथनका भी बाधित कर देगी । फिर उसका निर्वाह कैसे होगा ? फिर भी यदि कहो कि ये जो अङ्ग, शास्त्र हैं वे गणधरोंके कथनानुसार महर्षियोंके द्वारा बनाये गये हैं। यदि यही ठीक है तो महर्षियों उनके रचयिताओंमें अपना नाम न रख कर गणधरोंका नाम क्यों रक्खा ? क्या उन्हें किसी तरहकी विभीषिका थी? जो उन्होंने बड़ों के नामसे अपने बनाये हुये ग्रन्थ प्रकाशित किये। जाति पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा ? उन्होंने अपने दूसरे महाव्रतका उहूंघन करना क्यों उत्तम समझा ! दूसरे गणधरोंकी जैसी गंभीर बाणी होती है वमी इनकी क्यों नहीं ! जसे ऋषियोंके प्रन्थोकी भाषा हैं वैसी ही इनकी भी ह । इत्यादि कई हतुओं से ये अङ्गादि शास्त्र खास गणधरोंके द्वारा विहित प्रतीत नहीं होते । यदि सिद्ध कर सकते हो तो करो ! उपादेय होगा तो सभी स्वीकार करेंगे
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दिगम्बरोंका तो इस विषय में सिद्धान्त है कि--भङ्ग पूर्वादि शास्त्रोंका लिखा जाना ही जब निवान्त असम्भव है तो उनका होना तो कहांतक सम्भव है इसका जरा अनुभव करना कठिन है । परन्तु अभी जितने शास्त्र हैं, वे सब परम्परा के अनुसार अङ्गशास्त्र के अंश ले २