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समून्द्रभाषानुवाद
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गुप्तिके पालन करने वाले हैं ऐसे साधुओंके कम के
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. नाश करने वाले ध्यानकी सिद्धि होती है ध्यानमे शुद्ध शान्तरसका समुद्रव होता है शान्तरससे आत्मज्ञान होता है और फिर उसी आत्मावबोधले मोहनीय कर्मका नाश करके साधु लोग क्षीणमोही होकर और शुलध्यान रूप खङ्गके द्वारा चार घातिया कमका नाश करके जब केवली होते हैं तो क्षुधा तृपादि अठारह दोपांसे रहित अनन्त सुख रूप पीवृपके पानसे सन्तुष्ट तथा लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञानके धारक ऐसे केवली भगवान आहार क्या कर सकते हैं ? यदि ये श्रुधादि दोष जिन भगवानमें माने जायें तो दोष रहित शुद्ध स्वरूप जिनदेव फिर वीतराग कैसे कहे जासकेंगे ?
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कदाचित कहो कि - जिस तरह भोजन करते हुये उदासीन साधुओंके वीतरागता बनी रहती हैं तो केवली भगवानके क्योकर न रहेगी !
विमाननः ॥ ६५० मा पात्रोमा
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॥६॥
पादः
॥ ६८ ॥ श
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