________________
३०१
अष्टपाहुड णियसत्तिए महाजस, भत्तीराएण णिच्चकालम्मि।
तं कुण जिणभत्तिपरं, विज्जावच्चं दसवियप्पं ।।१०५ ।। हे महायशके धारक! तू भक्ति और रागसे निजशक्तिके अनुसार जिनेंद्रभक्तिमें तत्पर करनेवाला दस प्रकारका वैयावृत्त्य कर।
जं किंचि कयं दोसं, मणवयकाएहिं असुहभावेण।
तं गरहि गुरूसयासे, गारव मायं च मोत्तूण।।१०६।। हे मुनि! अशुभ भावसे मन, वचन, कायके द्वारा जो कुछ भी दोष तूने किया हो, गर्व और माया छोड़कर गुरुके समीप उसकी निंदा कर।।१०६।।
दुज्जणवयणचउक्कं, णिटुरकडुयं सहति सप्पुरिसा।
कम्ममलणासणटुं, भावेण य णिम्मया सवणा।।१०७।। सज्जन तथा ममतासे रहित मुनीश्वर कर्मरूपी मलका नाश करनेके लिए अत्यंत कठोर और कटुक दुर्जन मनुष्योंके वचनरूपी चपेटाको अच्छे भावोंसे सहन करते हैं।।१०७ ।।
पावं खवइ असेसं, खमाय परिमंडिओ य मुणिपवरो।
खेयरअमरणराणं, पसंसणीओ धुवं होई।।१०८।। क्षमा गुणसे सुशोभित श्रेष्ठ मुनि समस्त पापोंको नष्ट करता है तथा विद्याधर, देव और मनुष्योंके द्वारा निरंतर प्रशंसनीय रहता है।।१०८।।
इय णाऊण खमागुण, खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं।
चिरसंचियकोहसिहं, वरखमसलिलेण सिंचेह।। १०९।। हे क्षमागुणके धारक मुनि! ऐसा जानकर मन वचन कायसे समस्त जीवोंको क्षमा कर और चिरकालसे संचित क्रोधरूपी अग्निको उत्कृष्ट क्षमारूपी जलसे सींच।।१०९।।
दिक्खाकालाईयं, भावहि अवियारदसणविसुद्धो
उत्तमबोहिणिमित्तं, असारसंसारमुणिऊण।।११०।। हे विचाररहित मुनि, तू उत्तम रत्नत्रयके लिए संसारको असार जानकर सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध होता हुआ दीक्षाकाल आदिका विचार कर।।११० ।।
सेवहि चउविहलिंगं, अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो।
बाहिरलिंगमकज्जं, होइ फुडं भावरहियाणं।।१११।। १. आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके मुनियोंकी सेवा करना दस प्रकारका वैयावृत्त्य है।