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५५ मारता
हे मुनि! तू दस प्रकारके अब्रह्मका त्याग कर। नव प्रकारके ब्रह्मचर्यको प्रकट कर, क्योंकि मैथुनसंज्ञामें आसक्त होकर ही तू इस भयंकर संसारसमुद्रमें भ्रमण कर रहा है।।९८ ।।
भावसहिदो य मुणिणो, पावइ आराहणाचउक्कं च।
भावरहिदो य मुणिवर, भमइ चिरं दीहसंसारे।।९९।। हे मुनिवर! भावसहित मुनिनाथ ही चार आराधनाओंको पाता है तथा भावरहित मुनि चिरकालतक दीर्घसंसारमें भ्रमण करता रहता है।।१९।।
पावंति भावसवणा, कल्लाणपरंपराई सोक्खाई।
दुक्खाई दव्वसवणा, णरतिरियकुदेवजोणीए।।१०० ।। भावलिंगी मुनि कल्याणोंकी परंपरा तथा अनेक सुखोंको पाते हैं और द्रव्यलिंगी मुनि मनुष्य, तिर्यंच और कुदेवोंकी योनिमें दुःख पाते हैं।।१०० ।।
छादालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण।
पत्तोसि महावसणं, तिरियगईए अणप्पवसो।।१०१।। हे मुनि! तूने अशुद्ध भावसे छ्यालीस दोषोंसे दूषित आहार ग्रहण किया इसलिए तिर्यंच गतिमें परवश होकर बहुत दुःख पाया है।।१०१ ।।
सच्चित्तभत्तपाणं, गिद्धीदप्पेणऽधी पभुत्तूण। ___ पत्तोसि तिव्वदुक्खं, अणाइकालेण तं चिंत।।१०२।।
हे मुनि! तूने अज्ञानी होकर अत्यंत आसक्ति और अभिमानके साथ सचित्त भोजनपान ग्रहण कर अनादि कालसे तीव्र दुःख प्राप्त किया है, इसका तू विचार कर।।१०२।।
कंदं मूलं बीयं, पुप्फ पत्तादि किंचि सच्चित्तं।
असिऊण माणगव्वं, भमिओसि अणंतसंसारे।।१०३।। हे जीव! तूने मान और घमंडसे कंद मूल बीज पुष्प पत्र आदि कुछ सचित्त वस्तुओंको खाकर इस अनंत संसारमें भ्रमण किया है।।१०३।।
विणयं पंचपयारं, पालहि मणवयणकायजोएण।
अविणयणरा सुविहियं, तत्तो मुत्तिं ण पावंति।।१०४।। हे मुनि! तू मन, वचन, कायरूप योगसे पाँच प्रकारके विनयका पालन कर, क्योंकि अविनयी मनुष्य तीर्थंकर पद तथा मुक्तिको नहीं पाते हैं। ।१०४ ।।
१. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार ये विनयके पाँच भेद हैं।