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कालिकाचार्यकथा।
सुवर्णपुरि शिध्यानुशिष्य श्रीसागरचंद्रसरिनइ स्थानिक पुहता छह । इस्यु सांभली ते सवे भव्य श(शि)प्य रुलीयात्य थ्या । तेइ नगरभणी चाल्यो । केतले दोहे नगरि पुहता । ते सागरचंद्रसूरीस्व(बोरे सांभलिउं जु गुरना गुरु श्रीपूज्य गुरु पाधार छई। ते श(शिष्य प्रष्ट तां वृद्ध भागलि कहिवा लागा। ति बारई वृद्धिइ कहिउं अम्हे पणि सांभलिउँ । पणि ते महात्मा तणओ जि संघात छइ गुरु श्रीकालिकाचार्य आगई आव्या । साहमा जाता पाछा आव्या । ओ(उ)पाश्रिय गुरु(बोहि भूमि तु आव्या देषी ते परिवार शिष्य वर्ग सइ साहम ऊठिउं । ति वारई सागरचंद्रसरि पूछउँ । ए कुण तेहे शिष्ये कहिउँ । एह जि श्रीपूज्य गुरु जाणिवा । सागरचंद्रसूरि पगे लागी गुरु खमाज्या । मई मोटओ भविनय कीघो। अजाणिवइ करी इ भज्ञात मूर्ष(ख) जे मई श्रीपूज्य प्रसाद गुरु न बोलल्या । इसी असमाधि लाज फरिवा लागु । गुरे कहठ संताप म धरि । दुक्स म भाणि । ए ताहरं कारण काई नहीं, ए कलिकालतण । महात्मा इण परी त्रतायुग कलिकाल तु लोक प्रसिद्ध छइ । अनई दूसम समय भागम प्रसिद्ध छह इसिउं कहिउं छछ ।
न देवे देवत्वं कपटपटवस्तापसजना
जनो मिथ्याभाषी विरलतरदृष्टिश्च जलदः । पसको नीचानामवि(क)निपतयो दुष्टमतयो,
जना[:) शि[ष्टा] नष्टा अहह ! कलिकालव्यतिकरु:(रः) ॥१४॥ अहह इसिई खेदिई कालिकाल व्यतिकर रौद्न हुभो। देवमाहि देवायतन कांई नहीं। तापस जन भणीई (अ)षि तेहइ ते कपटु नह विषइ पडवडा इमा। जन लोक मिथ्याभाषी जूठाबोला थ्या। मेहह ते कीहि वरसई किहिं न वरसई । नीचजन दुष्टतणी सिं(सं)गति हुई। राजान दुष्टमतिक हुआ । विशिष्ट उत्तम जन ते नाठा । ईणी परिई दूसम समय दुष्ट देषी(स्वी)इ । ईणइ भावि करी, हो पाचार्य तुझारूं दूषण नहीं, ए प्रमाद दूषण । जीव सके कालनई महात्मि करी प्रमादि पञ्चा रहई । वालक प्रस्थ दृष्टांत तत्र कहो। शिष्यानुशिष्य ते प्रतिबोधी गुरु श्रीकालिकाचार्य प्रतिई विनीत शिष्य हुआ । तेहइं शिष्यं परिवर्या अन्यत्र विहारक्रम कीधमो ॥
एकवार महाविदेह क्षेत्रि यिहरमान जिन श्रीसीमंधरस्वामि कन्हा सौधर्मेन्द्रि इसी पृच्छा कीधी । भगवन(न्) जिनेंद्र ! हवडा जिस्या तम्हे निगोद जीव वखाण्या तिसी निगोद नीवतणी व्याख्यातणा जाण भरतक्षेत्रि को छइ ! इसि इंद्रि पूछिइ इंतइ स्वामी सीमंधरस्वामि केवलज्ञान भास्कर इते सौधर्मेन्द्र आगलि कहिउँ । श्रीकालिकाचार्य नव पूर्वना जाण छइं । ते असी निगोद व्याख्या जाणई ! ए भरतक्षेत्र तणा लोक धन्य ! अद्यापि कलिकालि निस्तीर्थ तीर्थकर रहित केवलज्ञान(नी) रहित संपूर्ण अवि(व)धि ज्ञानइ रहित मनःपर्यवज्ञान अढाईद्वीपतणा संजीया पंचेंद्रिय जीवतणा मनोगत भाव नाणई । इस्यूं मनःपर्यवज्ञान श्रुतज्ञानइ नहीं । एहवइ कालि दूसमि श्रीवीतरागतणा वचन मानई । जे धर्म प्रवर्तावई, जे सिद्धांततणा विचार कहई ते धन्य । इसी स्तुति श्रीसीमंधरस्थामि करई । इंद्र महाराज सांभलीनई भरति क्षेत्रि भाविभो । वृद्ध ब्राह्मण जरा जीर्ण रूप करी आव्यु । अनइ गुरु श्रीकालिकाचार्य कन्हलि पूछिओ स्वामिन् ! निगोद जीव केहवा छई ! केतला एक छई। ति वारई गुरु श्रीकालिकाचार्ये भागम श्रुत निगोद व्याच्या क्रीधी।
संख्यातीताः सन्ति गोलाः, गोलेऽसंख्या निगोदकाः । एकैकस्मिन् निगोदे च, सिदेभ्योऽनन्तजन्तवः ॥१५॥
"Aho Shrutgyanam"