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श्रीजयानन्दसूरिविरांचता जेसि बलेण चलिआ, अम्हे परमंडलक्कमणसूरा । ते सव्वे पडिकूला, पंचाणवई निवा जाया ॥६०॥ जं साहिज्जाऽवसरे, गासं मगति अम्ह सो नत्यि । गमिहिति तेण एए, ठाहिइ इकं तु अम्ह बलं ॥६॥ चितइ सूरी पुरिसो, सूरो वीरो अ ताय धीमंतो । जाव समिद्धिसमिद्धो, तणतुल्लो रिद्धिपरिहीणो ॥६२॥ अह सूरि रयणिमझे, गयणे नारिं निएंह नवरुवं । सा भणइ गुरुं मुणिवर ! दुक्खं मा घरसु निअहिअए ॥६॥ सासणदेवी अयं, साहिज्जत्थं समागया तुज्झ । सीआ-सुलसासरिसं, सीलेण सरस्सइं जाण ॥६४॥ सरसइसीलाउ इमे, तुह पिट्टीए निवाइणो लग्गा । तस्सीलपभावेण वि, जयपत्तं चेव तुह होही ॥६५॥ छहस्स पारणे सा, आयामं पइदिणं करेमाणी । देवं तु वीयरायं, तुम गुरुं ने मिलहेइ ॥६६॥
चुम्नं समप्पिऊणं, करकमले सा अदंसणं पत्ता । विज्जुज्जो न खणं, देवाणं दसणं जेण ॥६॥ तच्चुनवससुवनीकयइसमूहदाणओ गुरूणा । सरयम्मि चालिआ ते, मालवसंधि गया कमसो ॥६८॥ दुकमह पेसइ गुरू, अज्ज वि नरनाह ! सरसई मुंच । अइताणि हि तुट्टइ, फुटइ जं देव ! अइमरिअं ॥६९॥ अन्नायपवनाणं, अन्भुदओ निच्छएण न हु होइ । विसमविसमक्खयाणं, जीअं किं कहवि निव! दिद्वं? ॥७॥ जइ रावणो वि पत्तो, पंचत्तं परकलत्तवंछाए। ता समणिसमीहाए, कई न तं होहिई उज्झ ? |७१॥ अह दप्पंधो राया, जपइ भो दूअ ! किं बहुं भणसि ? । पोरिसमिमस्स हुज्जा, जइ तो भिक्खाइ न भमिज्जा ॥७२।। मग्गिजतो सीसे, जे नहा संपय इहं पत्ता । काऊण मुंडयेलं, ताण भए को णु बीहेइ ? ॥७३॥ सूरस्स तिमिरनिवहा, गरुडस्स व सप्पसंचया विसमा । कार्ड किपि न सका, जह तह मह दुआ! मुणिमुहडा ॥७४॥ अह दूओ रोसेणं, भणइ अ सारं मृणेसु मह वयणं ।
जह होसि तरू स गओ, गओ तुम जइ स सिंहो अ॥७५॥ ४२D2 आदर्शे एकषष्टितमगाथाऽनन्तरं गाथेयमधिका वर्तते-भणइ गुरू अत्यत्थं, चिंता चित्ते वि नेव कायव्वा । सम्गम्मि खत्तियाण करे कलन्माण कमलेयं ।। ४३ °इ नियरूलं LI DI D4 1 ४४ व मेल्देह D4 1 ४५ इच्चाइ जंपिऊणं सुपसन्ना मा D2 1 ४६ अह चुनवस ° D2 । ४७ • हनु हो • D3 | ४८ • उजते सी.P2 DI D2 D3 D4 LI L2 1
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