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कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर। ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर।।
धरकर दिगंबर रूप कब , अठ-बीस गुण पालन करूँ। दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दश धारन करूँ।। तप तपूँ द्वादश विधि सुखद नित, बंध आश्रव परिहरूँ । अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कर्म रिपुकों निर्जरूँ ।।३।। कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ । कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ ।।
कर दूर रागादिक निरंतर, आत्मको निर्मल करूँ । बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचरूँ ।। आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चरूँ । प्रावै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुःखद भवसागर तरूँ ।।४।।
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