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देव-दर्शन का सारांश
हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो! आज मैंने महान् पुण्योदय से आपके दर्शन प्राप्त किये हैं। आज तक आपको जाने बिना और अपने गुणों को पहिचाने बिना अनंत दुःख पाये हैं।
मैंने इस संसार को अपना जानकर और सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये, प्रात्मा का हित करने वाले वीतराग धर्म को पहिचाने बिना अनंत दुःख प्राप्त किए हैं। आज तक मैंने संसार बढ़ाने वाले और सच्चे सुख का नाश करने वाले पंचेंद्रिय के विषयों में सुख मान कर, सुख के खजाने स्वपर-भेदविज्ञान रूप अमृत का पान नहीं किया है ।।१।।
पर आज आपके चरण मेरे हृदय में बसे हैं, उन्हें देखकर कुबुद्धि और मोह भाग गये हैं। आत्मज्ञान की कला हृदय में जागृत हो गई है और मेरी रुचि प्रात्महित में लग गई है। सत्समागम में मेरा मन लगने लगा है। अतः मेरे मन में यह भावना जागृत हो गई है कि आपकी भक्ति ही में रमा रहूँ।
हे भगवन् ! यदि बचन बोलूँ तो प्रात्महित करने वाले प्रिय बचन ही बोलूँ। मेरा चित्त गुणीजनों के गान में ही रहे अथवा आत्महित के निरूपक शास्त्रों के अभ्यास में ही लगा रहे। मेरा मन दोषों के चिंतन और वाणी दोषों के कथन से दूर रहे ।।२।।
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