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आचार्य जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की अधिकता से प्रधान पद प्राप्त करके मुनिसंघ के नायक हुए हैं, तथा जो मुख्यपने तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण में ही मग्न रहते हैं, पर कभी-कभी रागाँश के उदय से करुणाबुद्धि हो तो धर्म के लोभी अन्य जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, दीक्षा लेने वाले को योग्य जान दीक्षा देते हैं,
आचार्य परमेष्ठी अपने दोष प्रकट करने वाले को प्रायश्चित् विधि से शुद्ध करते हैं-ऐसा प्राचरण करने और कराने वाले प्राचार्य कहलाते हैं।
उपाध्याय जो बहुत जैन शास्त्रों के ज्ञाता। होकर संघ में पठन-पाठन के अधिकारी हुए हैं, तथा जो समस्त शास्त्रों का सार आत्मस्वरूप में एकाग्रता है; अधिकतर तो उसमें लीन रहते हैं, कभी कभी कषायाँश के उदय से यदि उपयोग वहाँ स्थिर न रहे तो उन शास्त्रो को
उपाध्याय परमेष्ठी
स्वयं पढ़ते हैं, औरों को पढ़ाते हैं - वे उपाध्याय हैं। ये मुख्यतः द्वादशाङ्ग के पाठी होते हैं।
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