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मोवनलाल ने यह नकल की है। नकल अत्यन्त शुद्ध है। सबसे प्रथम यही प्रति प्राप्त हुई थी।
'अ' प्रति के टिप्पण के सामान्य अशुद्ध पाठ शुद्ध कर दिये गये हैं, फिर भी महत्व की अशुद्धियाँ ( ) इस तरह के चिह्न अन्दर रक्खी हैं। चारो प्रतियो में जो पाठ गिर गये हैं और अर्थ की दृष्टि से जो आवश्यक हैं वे [ ] इस तरह के चिह्न के अन्दर रक्खे गये हैं।।
मैंने मूल और दीपिका के लिये स्वामिनारायण सम्प्रदाय के श्रीकृष्णवल्लभाचार्य द्वारा दीपिका के उपर अपनी किरणावली तथा श्रीगोवर्धनमिश्र की न्यायबोधिनी और श्रीचन्द्रजसिंह की पदकृत्य टीका समेत सम्पादित तर्कसंग्रह के खिस्ताब्द १९३७ के द्वितीय संस्करण का उपयोग किया है । काशी से पं. छन्नूलाल ने इसे प्रकाशित किया है । अर्थ दृष्टि से मुल और दीपिका के भिन्न भिन्न विद्वानों के सम्पादित संस्करणों के पाठान्तरों में विशेष फर्क न होने से मूल और दीपिका के पाठान्तर नहीं दिये हैं। प्रकरणों की योजना पाठकों की सुविधा की दृष्टि से स्वतन्त्र रूप से मैंने की है। पाठकों की सुविधा की दृष्टि से ही फक्किका में आवश्यकतानुसार 'सन्धि' को छोड़कर पद रक्खे हैं। इसी तरह सम्पादन करते समय पाठकों की सुविधा रखने का यथाशक्ति पूर्ण प्रयत्न किया गया है।
कुछ मेरी अनवधानी से और कुछ प्रेस की गलती से जो अशुद्धियाँ रह गई हैं वे सब शुद्धिपत्र में दी गई हैं, फिर भी कोई ऐसी अशुद्धि रह गई हो जो शुद्धिपत्र में न हो उसे जो पाठक सूचित करेंगे उनका आभारी रहूँगा।
इस सम्पादन की प्रेरणा के लिये गुरुवर्य पं. सुखलालजी, मुनिश्री पुण्यविजयजी, पू. मुनिश्री जिनविजयजी तथा पू. श्री रसिकलालजी परीख का विशेष आभारी हूँ। इसके अतिरिक्त बिकानेर की तीनों प्रतियों के व्यवस्थित रूप से पाठान्तर तैयार करने के लिये मित्रवर्य पं. श्री नगीनदास केवलशी शाह का भी अत्यन्त ऋणी हूँ। उनकी इस सहाय के बिना फक्किका का
ऐसा सम्पादन इतनी शीघ्रता से शायद न होता । जिन गुरुओं की विद्या के प्रभाव से और आशीर्वादों से न्याय और वैशेषिक-विषयक ग्रन्थों के सम्पादन में यत्किञ्चित्सामर्थ्य प्राप्त हुआ है इसके लिये उन पूजनीय गुरुओं का आजीवन ऋणी हूँ। प्रूफ-संशोधन में विद्वद्वर्य श्री केशवराम शास्त्रीजी का भी आभारी हूँ। संक्षेप में इतनी सहायता होने पर भी यदि सम्पादन में कुछ त्रुटि रह गई हो वह मेरी ही है। यदि विद्वान पाठकवर्ग उसे सूचित करेगा तो भविष्य के अन्य सम्पादनों में ऐसी त्रुटियों को दूर करने का पूर्ण प्रयत्न करूँगा ।
राजस्थान के एक विद्वान् की इस विशिष्ट कृति को, राजस्थान सरकार द्वारा नूतन प्रस्थापित पुरातत्त्व मन्दिर के सम्मान्य संचालक आ० श्री जिनविजयजी ने अपनी 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' में प्रकाशनार्थ स्वीकृत कर, मुझे जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिये अन्त में मैं पुनः अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करना चाहता हूँ। प्रियन्तां गुरुवः । १७-३-५२
जितेन्द्र जेटली अहमदाबाद