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तव्वयणसेवणा अभावमखंडा जबतक संसार में हूँ तबतक गुरु के वचनो की सेवा करूँ।
वारिज्जई जइवि नियाणबंधणं
वीयराय ! तुह समए ।
तहवि मम हुज्ज सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाणं । हे वीतराग ! आपने प्रभुके पास मागनेका निषेध किया है फिरभी में जनम-जनम आपकी पदसेवा मीले ऐसी चाहना रखता हूँ।
मेरी भी यही हालत है। "लघुता में प्रभुता बसे, प्रभुता से प्रभु दूर।" यह सन्त वचन को मैं जानता हूँ फिर भी। विचित्रता यही है कि मुझे छोटा बनना अच्छा नहीं लगता जिस तरह शरीर वजन जरूरत से ज्यादा बढ़ जाता है तो शरी अनेकानेक रोगों का घर बन जाता है। उसी तरह मन में अहंकार का वजन बढ़ जाता है तो मन अनेक दोषों का घर बन जाता है। इसलिए हे प्रभु ! अहंकार से भरे हुए मेरे मन को दोषों से बचाने के लिए अनुशासन करें मन के विषय और आसक्ति पर काबू रख सकें और सुखशीलता को दूर कर सकें ऐसे मार्गदर्शक गुरु की मुझे बहुत जरूरत है। आप तो जगत्गुरु हो। जब तक आप मेरे गुरु नहीं बनते तबतक कृपा करके एक ऐसे सद्गुरु से भेंट करा दो जो आपके साथ मेरा मिलाप करा दें।
अर्जुन ने धनुष्यकला आचार्य द्रोण जैसे कुशल कलागुरु के मार्गदर्शन से प्राप्त की थी। उसी प्रकार की धनुष्यकला एकलव्य ने आचार्य द्रोण के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के बिना ही हाँसिल की थी अनन्य और असाधारण समर्पण के प्रभाव से । जिस प्रकार नैया पानी में डूबते हए को बचाने का काम भले ही करती हो लेकिन नदी या सागर के उसपार पहुँचने के लिए हमें पतवार की जरुरत पड़ती है। उसी प्रकार गुरु का योग संसार से बचाने का काम भले ही करे लेकिन मुक्ति के किनारे तक पहुँचने के लिए समर्पण
और कृपा के बिना नहीं चलेगा। इसलिए है भगवन्त ! आपके पास मैं इतनी याचना करता हूँ कि गुरु तो मुझे जन्मोजन्म मिलते रहें लेकिन गुरु के वचनों का आदर जब तक संसार रहें तब तक अखण्डित रहें।
प्रसन्न मन सुखी होने का प्रथम
और अन्तिम चिह्न है । जब कि अप्रसन्न मन दुःखी होने का प्रथम और आखरी चिह्न है। हे परमकृपालु परमात्मा ! जब से मुझ में समज आई है तब से मैं खोई हुई 'मन की प्रसन्नता' की तलाश में रहता हूँ। किन्तु निराशा ही हाथ लगी है। आपकी बात मुझे बिलकुल सच लगती है। "संसार में रहकर प्रसन्नता प्राप्त करना असम्भव है। गन्दे पानी के नाले में गुलाब का फूल कैसे खिल सकता है? आसपास के संजोग
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