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गणित में सार्वभौम ज्ञान संभव है। अतः इन्हें संदेहवादीन कहकर आभासवादी, प्रत्यक्षवादी और अनुभववादी मानना चाहिए।
समीक्षा-अनुभववादियों ने बुद्धि का निषेध कर अपने को एकांगी और हठधर्मी बना लिया है। यह सही है कि अनुभव ज्ञान प्राप्ति का एक मुख्य उपाय है, परन्तु इसे ही एकमात्र साधन मानना और बुद्धि को ठुकराना अनुचित है।
इन्होंने ऐन्द्रिय अनुभव को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया है। वस्तुतः अनुभव के अन्तर्गत ऐन्द्रिय और अनैन्द्रिय दोनों तरह के अनुभवों का समान महत्त्व है। आलोचकों ने इनके सिद्धान्त को आत्मघातक सिद्ध किया है। अनुभववाद के मुताबिक सत्य वही हो सकता है, जिसका इन्द्रियानुभव संभव हो। इसलिए अनुभववाद स्वयं अनुभवगम्य नहीं होने के कारण असत्य एवं मिथ्यासिद्ध हो जाता है।
अनुभववादियों ने स्वयं स्वीकार किया है कि उनका ज्ञान निश्चित नहीं है तो स्पष्ट ही है कि उनका सिद्धान्त (अनुभववाद) निश्चित न होकर मात्र संभाव्य सिद्ध होता है। इसके आधार पर कुछ निश्चित नहीं किया जा सकता है।
अनुभववादियों ने मन को निष्क्रिय मानकर भूल की है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि छोटी-से-छोटी क्रिया में भी मन की सक्रियता रहती है। संवेदन में भी मन की क्रियाशीलता रहती है।
ह्यूम के दर्शन से तीन परिणाम निकलते हैं-(क) सर्वाहंवाद, (ख) मनोवैज्ञानिक परमाणुवाद और (ग) संदेहवाद। ये तीनों अग्राह्य एवं दोषपूर्ण हैं।
उपर्युक्त विवेचनों से जाहिर हो जाता है कि अनुभववाद बुद्धिवाद के बिना एकांगी एवं संकीर्ण है। ज्ञान के लिए बुद्धि और अनुभव दोनों महत्त्वपूर्ण हैं।
इसलिये बी. रसेल ने इनकी अनभववादी सोच की सीमा एवं इनकी भूल को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "Infact, in the later portion of the Treatise, Hume forgets all about his fundamental doubts and writes much as any other enlightened moralist of his time might have written; he applies to his doubts the remedy that he recommends, namely "carelessness and inattention". In a sense, his scepticism is insincere, since he cannot maintain it in practice." अतः इनकी क्रिया
और ज्ञान एक नहीं हो पाया इसीलिए इनके दर्शन पर संदेहवाद का आरोप लगाया गया है।