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लगे तो उसे ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष समझना चाहिए। यहां गत अनुभव एवं पूर्व अनुभव की प्रधानत रहती है।
The second kind of extra ordinary perception is called jñîna laky a perception. It is the complicated perception through association sometimes different sensation become associated and from one integrated perception. Here an object is not directly presented to a sense organ, but is revived in memory through the past cognition of it and is perceived through representation. जैसे एक मित्र दूसरे मित्र के कार्य सम्पन्न कर देता है (पूर्व सम्बन्ध ज्ञान के आधार पर) उसी प्रकार एक इन्द्रिय दूसरे इन्द्रिय अथवा इन्द्रियों के काम को अपने कार्य की तरह सम्पन्न कर देने में सहायता प्रदान करता है। यह गत-अनुभव एवं गत-सम्बन्ध पर आधारित ज्ञान है।
(ग) योगज (Intuitive perception) यह वह प्रत्यक्ष है, जिसमें योगियों को अबाधित रूप से पदार्थों का साक्षात्कार होता है। इस सम्बन्ध में एस. सी. चटर्जी ने लिखा है-"The third kind of extra-ordinary perception is called yogaja. It is the intuitive and imediate perception of all objects-past, distant and future, possessed by the yogins through the power of meditation. It is like the kevalajñ îna of the Jains, the Bodhi of the Buddhist, the kevalya of Sifkhya-yoga and the Aparoky înubhuti of the Ved întins. It is intuitive suprasensuous and supra-relational."30 वस्तुतः न्यायदर्शन कुछ ऐसे योगियों को मानता है, जो सभी कालों की वस्तुओं का प्रत्यक्ष कर सकते हैं। अति सूक्ष्म, अति दूरस्थ एवं बाधित वस्तुओं का प्रत्यक्ष करने में भी ये पूर्णतया समर्थ हैं। इनके सम्मुख समय और दूरी का कोई व्यवधान या रूकावट नहीं है। इन योगियों के द्वारा किया गया प्रत्यक्ष ही योगज कहलाता है। पतंजलि के योगसूत्र में यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। कैवल्य प्राप्त व्यक्ति ही योगज का मर्म जानते हैं और योगज से कैवल्य की प्राप्ति होती है। कछ विद्वानों ने "प्रतिभा' नामक प्रत्यक्ष को भी एक प्रकार का प्रत्यक्ष माना है। वस्तुतः उसे योगज के अन्तर्गत ही मानना चाहिए क्योंकि छोटे बच्चों को जो भावी पदार्थों का ज्ञान होता है, जैसे पूछने पर छोटी बच्ची कहती है कि "भाई आज आयेगा" और ठीक आता भी है, वहाँ मानना होगा कि विशुद्ध-अन्तःकरण गत संस्कार ही असाधारण कारण होता है और योगजस्थल में भी यही बात होती है, क्योंकि योग से योगियों का अन्तःकरण विशुद्ध होने पर ही तद्गत संस्कार के सहारे योगज प्रत्यक्ष होता है इसीलिये योगी को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी इस बात की सम्पुष्टि की गई है। इसीलिए षष्ट अध्याय के 46वें श्लोक में बतलाया गया