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४] श्रीदशलक्षण धर्म । शक्तिको उत्तम क्षमा कहते हैं । अर्थात् जिस शक्तिके कारण जीव किसी भी प्रकारके उपसर्ग व कप्ट (दुःख) आनेपर भी घबराते नहीं, अर्थात् व्याकुल न होवे, किन्तु उस दुःख व क्लेशको अपना ही पूर्वोपार्जित कर्मका फल जानकर समभावोंसे सहन करे, सो क्षमानाम
आत्माका गुण है। प्रायः समस्त संसारी प्राणी अपने इस उत्तमक्षमा गुणको भूले हुए इसके विपरीत-इंद्रियोंके इष्ट विषयों वा विषयोंकी योग्य सहायक सामग्रीमें और विषयानुरागी स्वमनोनुकूल चलनेवाले मित्रोंमें राग (रति) करते हैं । और इनसे उलटे इन्द्रियोंको अनिष्टसूचक पदार्थ व इच्छाविरुद्ध पुरुषोंसे द्वेष अर्थात् अरति (अप्रीति) करते हैं । ऐसी अवस्थामें इष्टानिष्ट (रति-अरति) सूचक जो कुछ भाव होते हैं वे ही आत्माके परसंयोगसे उत्पन्न हुए वैभाविक भाव हैं।
तात्पर्य जब किसी जीवको इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तब वह प्रफुल्लित चित्त हुआ अपने आपको परम सुखी मानता है। और समझता है कि इस इष्ट वस्तुका वियोग मुझसे कदाचित् भी कभी नहीं होगा और इसीलिये वह उसमें तल्लीन हो जाता है। परन्तु जब कोई भी चेतन अर्थात् देव मनुष्य या पशु या अचेतन पदार्थ उसकी उस इष्ट वस्तुके वियोगका कारण बन जाता है, तब वह विषधर (सर्प) के समान क्रोधित होकर उसका सर्वस्व नाश करनेका उद्यम करता है । इसीको क्रोधभाव-कषाय कहते हैं ।
क्षमा गुण इसी क्रोधभावका उल्टा आत्माका स्वभाव है। '
जब यह जीव निज भावरूप परिणमन करता है, तब ही इसको उतने ही समय तक, जब तक वह स्वभावोंमें स्थिर रहता है, सुखी