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श्रीदशलक्षण धर्म ।
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उत्तम आकिञ्चन्य ।
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तिविहेण जो विवज्जड़ चेयण मियरंच. सव्वहा संगं । लायविवहारविरहो णिग्गययत्तं हवे तस्स ॥ ९ ॥
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अर्थात् - जो चेतन अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रहों को मन बचन काय, कृत कारित अनुमोदना करके सर्वथा छोड़ देता है तथा जो लोकव्यवहार तकसे विरक्त होता है, वही उत्तम आकिंचन्य धर्मका घारी निर्ग्रथ साधु होता है । आगे इसीको और भी कहते हैं ॥ ९ ॥ ( स्वा० का० अ० ) | " न किञ्चनः इति आकिञ्चनः, तस्य भावः आकिञ्चन्यः "अर्थात् किञ्चित् भी परिग्रहका न होना सो आकिंचन्य है । उत्तम. विशेषण है, जिससे बोध होता है, कि परिग्रह केवल दिखाने मात्रको. अलग नहीं किया है, किन्तु अन्तरंग में भी उसकी चाह नहीं रही है। इस प्रकार उसके गुरुत्वको प्रकाशित करनेवाला है । यह आकिञ्चन्य धर्म आत्माका ही स्वभाव है कारण कि आत्मा शुद्ध चैतन्य अमूर्तीक पदार्थ है और परिग्रह पुद्गलमयी रूपी पदार्थ है, जो आत्मा से सर्वथा भिन्न स्वरूप है | इसके संयोगसे आत्मा ममत्वरूप परिणमता है और इसके ममत्व छूटते ही स्वभावको प्राप्त होजाता है। तात्पर्य - परिग्रहकी मूर्छातक भी न होना सो आकिंचन्य धर्म है और इसीलिये इसे आत्माका स्वभाव कहा जाता है ।
परिग्रहका लक्षण आचार्योंने इस प्रकार कहा है
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मूर्छा परिग्रहः " - अर्थात् ममत्व भाव ही परिग्रह है ।