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2009
श्रीदशलक्षण धर्म ।
ही हाथसे अपना द्रव्य सुपात्र दानमें लगाकर अपने साथ ले जांय । कहा है
"घर गये सो खोगये; अरु देगये सो ले गये ।" “यिता रत्नाकरो यस्य, लक्ष्मी यस्य सहोदरी । शंखो भिक्षाटनं कुर्यात्, नादत्तमुप्रतिष्ठते ॥" अर्थात् - समुद्र ( जिसमें रत्न उत्पन्न होते हैं ) जिसका पिता है और लक्ष्मी बहिन है, वही शंख घर घर भीख मांगता फिरता है। यह दान न देने का ही फल है । प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि एक पिताके ४ पुत्रोंमें ३ धनी और १ निर्धन होजाता है, यह सब दानका माहात्म्य है | इसलिये सदा दान करनेका अभ्यास रखना चाहिये । जिनको ममत्व कम होता है, वे ही दान करते हैं और जब सर्वथा ममत्व छूट जाता है, तब उसे सर्वथा छोड़कर उत्तम पुरुष स्वात्मसिद्धि में लग जाते हैं ।
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बहुत से लोग अपने जैसे श्रीमानोंको खिलाने या जीमनवार करनेको ही दान समझते हैं, पर यह उनकी भूल है, क्योंकि श्रीमानोंको देना निरर्थक हैं । कहा भी है-
" वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम् । वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवापि च ॥ "
अर्थात् - समुद्र में वृष्टि होना, खाये हुएको खिलाना, धनीको दान देना और सूर्यको दीपक बताना व्यर्थ है । बहु लोग अपनी बहिन, बेटी, बेटा, स्त्री आदिको कुछ द्रव्यका विभाग करके अपनेको दानी मान लेते हैं, परन्तु यह भी दान नहीं है, क्योंकि वे लोग