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२] : . श्रीदशलक्षण धर्म। .. mexwewAHIMNETA Nameerecaererewwwsewmom.mms.
approprenesirernmwwere.' यद्यपि जीवका स्वभाव चैतन्य-दर्शन और ज्ञानमयी है तथापि यह अनादि कर्मबन्धके कारण पुद्गलसे मिला हुआ विभाव अर्थात् रागद्वेषरूप परिणमन करता रहता है और इसीसे यह. इष्ट-अनिष्ट बुद्धिको प्राप्त होकर कभी क्रोध, कभी मान, कभी माया, कभी लोम, कभी तृष्णा, कभी आशा, कभी झूठ, कभी स्वच्छन्द इंद्रिय विषयासक्तरूप प्रवृत्ति, कभी कुशील और कभी कुध्यानरूप प्रवृत्ति करता है। कभी अन्यथा श्रद्धान अर्थात् अतत्त्व श्रद्धान करके वस्तुस्वरूपको अन्यथा ही जानता हुआ अन्यथा प्रवृत्ति करता है। अथवा कभी स्वार्थ व प्रमादवश होकर परपीड़नरूप प्रवृत्ति करता रहता है। सो यदि वह पदार्थके यथार्थे स्वरूपका श्रद्धान व ज्ञान करके तदनुसार ही प्रवृत्ति करे जिसे कि "रत्नत्रय" कहते हैं, तो विभाव (रागद्वेष आदि) होने ही न पावें । तब ही क्रोधादि भावोंके न होनेसे उत्तमक्षमादि दश प्रकारकां धर्म कहा जासकेगा । अर्थात् जब यह जीव स्वभावरूप ही परिणमन करेगा तब न तो इससे पटकायी जीवोंके हननरूप बाह्य हिंसा ही होगी, और न रागादि भावरूप अंतरंग हिंसा होगी। इस प्रकार . हिंसाके न होनेसे अहिंसा स्वयमेव हो जावेगी।
. इसप्रकार उक्त गाथामें कहे हुए धर्मके भिन्न भिन्न लक्षणोंकी यद्यपि भेदविवक्षासे भिन्नता प्रतीत होती. है तथापि अभेद विवक्षासे. एकता ही है।.. .... अब यहां उत्तमक्षमादि दशं प्रकार धर्मोका विशेष स्वरूप कहते हैं-.,
भगवान् उमास्वामीने धर्मका स्वरूप. कहा है: - ..