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२०] श्रीदशलक्षण धर्म । अथवा ऐसे ही हीनाचारी, व्यसनी, पापी लोगोंका संग करे, तो क्या फिर भी वह उच्च गोत्री रह सकता है ? नहीं कभी नहीं, कभी नहीं। वह नीच, शूद्रोंसे भी महा नीच होजाता है।
और यदि कोई शूद्र, हिंसादि पाप नहीं करता है, झूठ चोरी व्यभिचार आदि पाप व दुर्व्यसन नहीं सेवन करता है, न्यायानुकूल योग्य आजीविका करके संतुष्ट रहता है, मद्यमांसादि निंद्य अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाना है, सदा भले मनुष्योंकी संगतिमें रहता हैं, तो क्या वह नीच ही कहा जासकता है ? नहीं, कदापि नहीं। संसारमें जीव मात्रको अपनी उन्नति करनेका स्वाभाविक अधिकार प्राप्त है। उच्च नीचपणा किसीकी पैतृक सम्पत्ति नहीं है। जीव स्वकृत कर्मसे उच्च नीच होसकता है, इसलिये उच्च बननेके लिये उच्चाचरण व उच्च विचार बनाना आवश्यक है, किंतु गर्व करना व्यर्थ है।
। अब यदि धनका मद करते हो, तो प्रत्यक्ष देखते हुए भी अंधेके समान हो, क्योंकि तुम जानते हो कि यह लक्ष्मी अति चंचल स्वभाव है । पुण्यकी दासी है। इसे पुरुषविशेषसे प्रेम नहीं है । जैसे वेश्या धनवालेसे प्रेम करके जहांतक उसके पास घन रहता है, दिखाऊ प्रीति बताते हुए संपूर्ण धन हरणकर अपने उसी प्रेमीको छोड़ देती है, वैसे ही लक्ष्मी पुण्य क्षीण होनेपर पुरुषको छोड़ जाती है। वह नीच, उच्च, मूर्ख, विद्वान्, कुरूप, सुरूप, सबलं, निर्बल, किंसीपर दया नहीं करती, न प्रेम ही रखती है। वह तो केवल पुण्यवानसे ही प्रेम रखती हैं, जैसे कि वेश्या धनवालेसे । देखो ! किसी समय एक पुरुषने अपनी स्त्रीको लक्ष्मी कहके संबोधन किया था, उसपर
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