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उत्तम मार्दव । ... [११ पीहे दुष्ट अनेक, बांध मार बहु विध करें।
धरिये क्षमा विवेक, कोप न कीजे प्रीतमा ॥ १ ॥ उत्तम क्षमा गहोरे भाई, यह भव यश परभव सुखदाई । गाली सुन मन खेद न आनो, गुणको औगुण कहे अजानो ॥. कहे अजानो वस्तु छीने, वांध मार बहुविधि करे । घरसे निकारे तन विद्वारे, वर तो न तहां धरे । तू कर्म पूख किये खोटे, सह क्यों नहिं जीयरा । अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी, साम्य जल ले सीयरा ॥ १॥
अनि उत्तमक्षमा धर्मागाय नमः ।
उत्तम मार्दव। उत्तमणाणपहाणो उत्तम तव परण करण सीलोवि । अप्पाणं जो ही लदि मद्दव रयण भवे तस्स ।।
अर्थात्-~-जो उत्तम ज्ञानमें प्रधान और उत्तम तपश्चरण करनेमें समर्थ होनेपर भी अपने आत्माको मानकपायसे मलिन नहीं करते हैं उनके उत्तममार्दव धर्म होता है। (स्व० का० अ० ) ____ भावार्थ-निर्गुणी, दीन, दरिद्री, अशक्त, अज्ञानी, हीन, कुलजातिवाला, कुरूप, चारित्रहीन पुरुप यदि विनय (नम्रता) धारण करते हैं तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि उनको तो दबना ही पड़ता है या वै दबाये जाते ही हैं। सो उनके ऐसा करनेसे वे