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________________ ७ 111 110 ` .. उत्तम क्षमा । पाने की इच्छा से) व्याहना स्वीकार कर लिया। सो देखो, वह तूकारी क्रोधित होने के कारण एक रंक, गुणहीन, कुरूप, व्यसनी पुरुषसे व्याही गई । पश्चात् किसी एक दिन उसका पति राजसभासे कुछ देरी से आया कि इसीपर से क्रोधित होकर वह ( तूकारी ) घरसे निकल गई । और चोरोंके हाथ पड़ी और जब उन्होंने उसका शीलभंग करना चाहा, तब उसके शीलके माहात्म्यसे वहां वनदेवीने आकर उसकी रक्षा की । फिर जब वह चोरोंसे छूटी तो बणजारों के हाथ पड़ी । उन्होंने भी उसी प्रकार उसपर कुदृष्टि की है, तब फिर भी उसने वनदेवीकी सहायता से रक्षा पाई, तब बणजारोंने क्षोभित होकर उसे एक छीपे - (कपड़े छापनेवाले) को बेच दी । वह छीपा उसका मस्तक आठवें पन्द्रहवें दिन चीरकर लोहू निकालता और उससे कपड़े रंगता | फिर जड़ीबूटियों (लक्षमूल) के तेल से उसका घाव अच्छा कर देता था । इस प्रकार कई महीनों तक कितने ही वार उसका मस्तक चीरा गया कि जिससे उसे घोर वेदना भोगनी पड़ी । एक दिन भाग्यवश कहीं उसका चाचा वहां पहुँच गया और छीपाको कुछ द्रव्य देकर ज्यों त्यों उसे छुड़ा लाया। तबसे तूकारीने क्रोध करना सर्वथा छोड़ दिया । तात्पर्य -- क्रोधके कारण ही तूकारीको इतने दुःख भोगने पड़े इसलिये क्रोध पिशाचको दूर से ही छोड़ देना चाहिये, और भी कहा है कि - " हने औरको, अरु क्रोध हने आपको । " क्षमा 'देखो, जो शत्रु बड़े बड़े शम्रधारी क्षत्रियोंसे भी अनेक चेष्टाएं करने पर भी वश नहीं होते हैं या जो सिंह व्याघ्रादि घातक जीव
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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