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________________ सिखानेवाले गुरु । ऐसे श्रुत पारगामी आचार्य ज्ञान परम्परावाहक भावी शिष्य को बाह्याभ्यन्तर 'ग्रन्थ' का स्वरूप समझाकर ग्रन्थियों को क्षीण करने का अभ्यास कराते हैं । जिससे शिष्य को पूरी तरह से ग्रन्थमुक्त होकर निर्ग्रन्थ अवस्था तक पहुँचाया जाता है । इस तरह शिष्य को मोक्षाधिकारी बनाया जाता है । ऐसे कुशल आचार्य ओजस्वी, तेजस्वी, गीतार्थ, पारगामी इ. गुणों के धारक होते हैं । गुरुकुलवास में रहनेवाले शिष्य के लिए कौनसे आवश्यक गुण या योग्यताएँ होना जरूरी हैं उनका भी यहाँ विस्तृत वर्णन है । 'गुरुकुलवास' में जाति वर्ण की उच्चनीचता भेदभाव से रहित अनेक विद्यार्थियों का एक संघ होता है और संघ अनुशासन से ही चलता है । इसलिए ( गाथा क्र. ७ से १२ तक) कठोर अनुशासनपालन के लिए आवश्यक होती है 'सहनशीलता', इसलिए सहनशीलता बढाने का उपदेश दिया है । इसके अलावा शिष्य को विनयशील, इच्छारहित, चतुर एवं अप्रमत्त होना जरूरी है । साथ में शिष्य को आज्ञाकारी भी होना चाहिए। सहनशीलता के अभाव में या वृथा आत्मविश्वास के कारण अपरिपक्व अवस्था में गुरुकुलवास को छोडनेवाले शिष्य की हालत 'नवजात, शक्तिहीन पक्षी शिशु के जैसी, जिसे ढंक आदि प्रबल पक्षी मार डालते हैं ?' वैसी ही होती है । गाथा क्र. १३ से १८ में गुरुकुलवास में रहने का फल बताया है, शिष्य को ज्ञानप्राप्ती, धर्म, कर्तव्य का बोध होता है, सहनशीलता, अप्रमत्तता आदि गुणों का वह अभ्यासी होता है । मोहरहित, संयमित जीवन जीने की कला सिखता है । आचरण में निपुणता के साथ साथ नवशालिनी प्रतिभा का पूरा विकास होता है और इस तरह शिष्य सम्पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त होता १३९
SR No.009489
Book TitleArddhmagadhi Aagama che Vividh Aayam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherFirodaya Prakashan
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other
File Size1 MB
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