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________________ वेदविद् ब्राह्मण जो अन्य कितने ही शास्त्रों के जानकार, एवं प्रकाण्ड पण्डित थे, वे ‘समवसरण' में अपनी अपनी दार्शनिक जिज्ञासाएँ, आशंकाएँ लेकर महावीर के पास गये और महावीर से उन जिज्ञासाओं का समाधान पाया, ऐसा वर्णन मिलता है । इस तरह 'समवसरण' का 'दार्शनिक चर्चास्थान' यही अर्थ ज्यादा संयुक्तिक लगता है जो कालौघ में बदल गया है । इस तरह महावीरकालीन ‘दार्शनिक चर्चा'ओं के लिए सुरक्षित एवं सुदृढ समाजव्यवस्था का परिचय यहाँ मिलता है । इस ‘समवसरण' अध्ययन में महावीर के समकालीन सभी दार्शनिक मतों का लेखाजोखा मिलता है, जो प्राचीन भारतीय दार्शनिक इतिहास को प्रकाशित करता है । आत्मा, विश्वस्वरूप, जीवसृष्टि, मोक्षकल्पना, आचरण पद्धति, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म आदि अनेक मुद्दों पर थोडी थोडी मतभिन्नतावाले कितने ही ‘वाद’ तब प्रचलित थे । 'सूत्रकृतांग' के प्रथम 'समय' अध्ययन में ऐसे अनेक वादों का उल्लेख मिलता है । उदा. - चार्वाक, आजीवक - नियतिवाद, बौद्ध – क्षणिकवाद, शून्यवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, नित्यवाद, सांख्य, शैव आदि । ‘सूत्रकृतांग' के टीकाग्रन्थ निर्युक्ति एवं चूर्णि में इन सब वादों के पुरस्कर्ताओं के नाम भी मिलते हैं, जो इन सबका ऐतिहासिकता का प्रमाण है । 'समवसरण' अध्ययन में इन सारे वादों को मुख्य चार ही विभागों में विभाजित किया है । क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद यह चार सिद्धान्त हैं, जिन्हें अन्यतीर्थिक पृथक्-पृथक् निरूपण करते हैं प्रथम हम 'अज्ञानवाद' क्या कहता है यह देखते हैं । १) अज्ञानवाद : अज्ञानवादी 'अज्ञान' को ही श्रेयस्कर, कल्याणकारी मानते हैं । उनका कहना है, “अतिविशाल इस सृष्टि का पूरा ज्ञान तो हम प्राप्त १२९
SR No.009489
Book TitleArddhmagadhi Aagama che Vividh Aayam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherFirodaya Prakashan
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other
File Size1 MB
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