SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ MAHARASHTRARARY अगहन-मास छठा R T NSAR पिता चौपाई अगहन मुनि तटनी' तट रहें। ग्रीषम शैल' शिखर दुःख सहें। इस पुनि जब आवत पावस काल । रहें साधु जन वन विकराल। 1 अर्थः- अगहन के महिने में (शीत ऋतु में) मुनिराज नदी के तट पर रहते कामकाज हैं, ग्रीष्म काल में पर्वत के शिखर पर दुःख सहते हैं और फिर जब वर्षा काल आता है तो साधुजन विकराल वन में रहते हैं। गीता छंद रहें वन विकराल में जहाँ, सिंह स्याल सतावहीं। कानों में बीछू बिल करें, और व्याल' तन लिपटावहीं। दे कष्ट प्रेत पिशाच आन, अंगार पाथर डार के। कुल आपने की रीति चालो, राजनीति विचार के।। अर्थः- वे इतने विकराल वन में रहते हैं जहाँ शेर और गीदड़ सताते हैं, कानों में बिच्छू बिल बना लेते हैं, सांप शरीर पर लिपट जाते हैं तथा प्रेत और पिशाच आकर अंगारे और पत्थर बरसाके कष्ट देते हैं इसलिए तुम राजनीति के अनुसार राज्य करके अपने कुल की रीति का अनुसरण करो। चौपाई हे प्रभु ! बहुत बार दुःख सहे। बिना केवली जाय न कहे। शीत उष्ण नरकन के तात। करत याद कम्पे सब गाता अर्थ:- हे प्रभु ! इस संसार में हमने बहुत बार इतने दुःख सहे हैं कि बिना केवली भगवान के वे कहे नहीं जा सकते। हे पिता ! नरकों मे जो गर्मी-सर्दी के दुःख हमने सहे उनका स्मरण करते हुए हमारा सारा शरीर काँप रहा है। गीता छंद गात कम्पे नरक में, लहे शीत उष्ण अथाह ही। जहाँ लाख योजन लोहपिण्ड सु, होय जल गल जाय ही। असिपत्र वन के दुःख सहे परबस, स्वबस तप ना किया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी, हमें न पपद क्यों दिया।। अर्थः- नरक में सर्दी के दुःख प्राप्त होने पर शरीर काँपता है और वहाँ इतनी अथाह गर्मी पड़ती है कि एक लाख योजन का लोहे का गोला गल करके जलमय हो जाता है। नरकों में कर्मों के वश पराधीन होकर हमने असिपत्र वन के दुःख भी सहन कर लिये परन्तु आज तक स्ववश होकर तप नहीं किया सो अब जो आपकी समझ है सो ही हमारी भी समझ JWAL है. हमें आप राज्यपद क्यों दे रहे हैं ! अर्थः- १. नदी। २.पर्वत। ३.वर्षा ऋतु। ४.गीदड़। ५.सर्प । ६.शरीर। ७.नरक का वन जो तलवार की धार जैसे पत्तों के वक्षों से युक्त होता है। - RE SUNNOU २७
SR No.009488
Book TitleVajradant Chakravarti Barahmasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherKundalata and Abha Jain
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size184 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy