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________________ या राग से दु:खी होता हूँ न कि वस्तु की अप्राप्ति से। यदि वस्तु के बिना मिले ही उस इच्छा को मैं अन्तरंग से तोड़ दूं तो अभी ही वस्तु के बिना मिले ही सुखी हो जाता हूँ-यह प्रत्यक्ष दिखता है तो सुख-दुःख का सम्बन्ध बाहरी पदार्थों के मिलने-न मिलने से तो है ही नहीं वरन् इच्छा के होने-न होने वा दूसरे शब्दों में राग वा वीतरागता से हैं-इस सत्य का हर एक जिज्ञासु को भी अन्तरंग में अवश्य ही निर्णय करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि एक पल भी संसार में नहीं रहना चाहता, उसे एक-एक क्षण मोक्ष का इंतजार है, यहाँ उसे रहना पड़ रहा हैं, वह रह जरूर रहा हैं परन्तु अन्दर में रो रहा है, तड़फ रहा है, उसे अच्छी तरह से मालूम हैं कि संसार में तो दुःख ही दु:खा हैं और सुखी होने का उपाय एकमात्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही है। हे भगवन् ! मुझे ये घरवाले, जेवर, कपड़ा, कुछ भी तो अच्छा नहीं लगता। उसकी बस यही भावना रहती हैं कि हे भगवन् ! मैं घर से निवृत्ति लेकर, मुनि बनकर किसी पहाड़ वा जंगल में जाकर तपस्या करूँ। ज्ञानी संसार बंधन से छूटने के लिए, स्वभाव में ही रहने के लिए हरदम तड़फता रहता है, कब वह शुभ दिन आए कि में अपनी आत्मा में ही रहूँ और उसमें ही समा जाऊँ और बाहर बिल्कुल भी निकलूं ही नहीं, बस में और कुछ भी नहीं चाहता। श्रद्धा में तो ज्ञानी झींकता ही रहता है कि हे भगवन् ! मेरा आत्मबल कैसे बढ़े ! मैं क्या करूँ, कैसे करूँ कि शीघ्र-अति शीघ्र ही सिद्धों की टोली में, अपने वंशजों में जाकर मिल जाऊँ, उनमें मिले बिना उसे चैन पड़ ही नहीं सकती। हे भव्यों ! चेतो, जागो, मौत सिर पर खड़ी हैं, न जाने कब ले जाएगी और फिर हाथ मलते ही रह जाओगे। बड़े ही पुण्य कर्म के उदय से यह मनुष्य पर्याय तथा उसमें भी उत्तम
SR No.009488
Book TitleVajradant Chakravarti Barahmasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherKundalata and Abha Jain
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size184 MB
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