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थी अब कुछ और दिखने लगेगी, सभी जीव भगवान आत्मा दिखाई देने लगेंगे, जो आनन्द मैंने लिया है, उसी आनन्द के पिंड सब ही दिखाई देने लगेंगे, किसी से भी देषबुद्धि नहीं रहेगी। हरदम सर्वांग में शान्ति का एक अलग ही जोरदार वेदन अनुभवन में आएगा और उसी में से अहंपना उठेगा कि यही में हूँ, उसी में सर्वस्व अर्पित हो जाएगा और जीवन ही शान्तिमय होकर रह जाएगा।
कोई भी कषाय वा रागादिक न्यारे ही भासेंगे, क्रोध भिन्न हैं और में भिन्न हूँ-यह खूब अनुभव में आएगा। यह अच्छी तरह से पकड़ में आने लगेगा कि यह जो ध्यान में एकाग्रता है, शांति का वेदन हैं, अपनी सत्ता का अवलोकन है, शरीर से भिन्न अपना ज्ञान है बस यही मेरी कमाई है, इससे भिन्न जो कुछ भी हैं चाहे वह शास्त्र पढ़ने का या प्रवचन सुनने का राग ही क्यों न हो, वह सब तो घाटा ही है। यदि अन्दर में दृष्टि दोगे तो सुख वा आनन्द का अथाह समुद्र हिलोरें लेता हुआ दिखाई देगा और उसी समय ही अपनी पर्याय को देखने पर अशान्ति भी दिखाई पड़ेगी, उपयोग रहना तो भीतर ही चाहेगा, चाहे आत्मबल की कमी से रह न पाए।
जिधर उपयोग लगता है-ढलता है, उधर की ही रुचि होती हैं, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि-यह नियम है। आत्मा की शक्ति तो वह एक ही हैं और ज्ञानी ने उपयोग को एक बार अन्तर्मुख करके भीतर में अपने शाश्वत निवास का स्थान देख लिया है तो उसकी शक्ति भीतर में ही ढलने में आनन्द पाती हैं और उसके विषय-भोगों में, कषायों में, मौज-शौकों में अवश्य ही कमी आ जाती हैं।
ज्ञानी को यह सत्य प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि भीतर में कोई भी इच्छा या राग पैदा होने पर मैं अपनी उस इच्छा